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________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र ३९०-३९२ ३ केवली भगवान् कहते हैं- यह कर्मों के आने का कारण है, क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में साधु या साध्वी को आए देखकर वह उसके लिए आहार बनाने के सभी साधन जुटाएगा, अथवा आहार तैयार करेगा। अत: भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु, कारण या उपदेश है कि वह इस प्रकार के परिचित कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहारपानी के लिये जाए-आए नहीं। बल्कि स्वजनादि या श्रद्धालु परिचित घरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त में खड़ा हो जाए। ऐसे स्वजनादि सम्बद्ध ग्राम आदि में भिक्षा के समय प्रवेश करे और स्वजनादि से भिन्न अन्यान्य घरों से सामुदानिक रूप से एषणीय तथा वेषमात्र से प्राप्त (उत्पादनादि दोष-रहित) निर्दोष आहार प्राप्त करके उसका उपभोग करे। ३९२. यदि कदाचित् भिक्षा के समय प्रविष्ट साधु को देख कर वह (श्रद्धालु–परिचित) गृहस्थ उसके लिए आधाकर्मिक आहर बनाने के साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे, उसे देखकर भी वह साधु इस अभिप्राय से चुपचाप देखता रहे कि 'जब यह आहर लेकर आएगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर दूंगा,' यह माया का स्पर्श करना है। साधु ऐसा न करे। वह पहले से ही इस पर ध्यान दे और (आहार तैयार करते देख) कहे- "आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बहन ! इस प्रकार का आधाकर्मिक आहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय (आचरणीय) नहीं है। अत: मेरे लिए न तो इसके साधन एकत्रित करो और न इसे बनाओ।" उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आधाकर्मिक आहार बनाकर लाए और साधु को देने लगे तो वह साधु उस आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी न ले। विवेचन- आधाकर्मादि दोष क्या है, उसका त्याग क्यों? कैसे जाना जाए?— सूत्र ३९०, ३९१, और ३९२ इन तीन सूत्रों में आधाकर्म-दोषयुक्त आहार से बचने का विधान है। आधाकर्मदोष का लक्षण यह है - किसी खास साधु को मन में रखकर उसके निमित्त से आहार ना, सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना। यह दोष ४ प्रकार से साधु को लगता है - (१) प्रतिसेवन - बार-बार आधाकर्मी आहार का सेवन करना, (२) प्रतिश्रवणआधाकर्मी आहार के लिए निमंत्रण स्वीकार करना। (३) संसवन - आधाकर्मी आहार का सेवन करने वाले साधुओं के साथ रहना और (४) अनुमोदन - आधाकर्मी आहार का उपभोग करने वालों की प्रशंसा एवं अनुमोदन करना। १ प्रस्तुत तीन सूत्रों में आधाकर्म दोष लगने के पाँच कारणों से सावधान कर दिया है(१) साधुओं के प्रति अत्यन्त श्रद्धान्वित एवं प्रभावित होने से अपने लिए बनाया हुआ आहार साधुओं को देकर अपने लिए बाद में तैयार करने का विचार करते सुनकर सावधान हो जाए, १. पिण्डनियुक्ति गाथा ९३, ९५ टीका
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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