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प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक: सूत्र ६२
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६२. तुम यहाँ जानो ! जो आचार (अहिंसा / आत्म-स्वभाव) में रमण नहीं करते, वे कर्मों से/आसक्ति की भावना से बँधे हुए हैं। वे आरंभ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं अथवा दूसरों को विनय-संयम का उपदेश करते हैं ।
वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं ।
वे ( स्वच्छन्दचारी) आरंभ में आसक्त रहते हुए, पुनः पुनः कर्म का संग
बन्धन करते हैं ।
वह वसुमान् (ज्ञान-दर्शन- चारित्र - रूप धन से संयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वकं विचार करता है, अन्तःकरण से पाप-कर्म को अकरणीय - न करने योग्य जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण मन से चिन्तन भी न
करे ।
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यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट् - जीवनिकाय का समारंभ न करे। दूसरों से उसका समारंभ न करवाए। उसका समारंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे ।
॥ सप्तम उद्देशक समाप्त ॥
जिसने षट् - जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभाँति समझ लिया, त्याग दिया है, वही परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है ।
ऐसा मैं कहता हूँ ।
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॥ शस्त्रपरिज्ञा प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
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