SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक: सूत्र ६२ ३५ ६२. तुम यहाँ जानो ! जो आचार (अहिंसा / आत्म-स्वभाव) में रमण नहीं करते, वे कर्मों से/आसक्ति की भावना से बँधे हुए हैं। वे आरंभ करते हुए भी स्वयं को संयमी बताते हैं अथवा दूसरों को विनय-संयम का उपदेश करते हैं । वे स्वच्छन्दचारी और विषयों में आसक्त होते हैं । वे ( स्वच्छन्दचारी) आरंभ में आसक्त रहते हुए, पुनः पुनः कर्म का संग बन्धन करते हैं । वह वसुमान् (ज्ञान-दर्शन- चारित्र - रूप धन से संयुक्त) सब प्रकार के विषयों पर प्रज्ञापूर्वकं विचार करता है, अन्तःकरण से पाप-कर्म को अकरणीय - न करने योग्य जाने, तथा उस विषय में अन्वेषण मन से चिन्तन भी न करे । - यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं षट् - जीवनिकाय का समारंभ न करे। दूसरों से उसका समारंभ न करवाए। उसका समारंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे । ॥ सप्तम उद्देशक समाप्त ॥ जिसने षट् - जीवनिकाय-शस्त्र का प्रयोग भलीभाँति समझ लिया, त्याग दिया है, वही परिज्ञातकर्मा मुनि कहलाता है । ऐसा मैं कहता हूँ । - ॥ शस्त्रपरिज्ञा प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ * * *
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy