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________________ २४ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध असंयममय जीवन वाला है। वह प्रमत्त है तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। विवेचन - 'गुण' शब्द के अनेक अर्थ हैं। आगमों के व्याख्याकार आचार्यों ने निक्षेप पद्धति द्वारा गुण की पन्द्रह प्रकार से विभिन्न व्याख्याएँ की हैं। प्रस्तुत में गुण का अर्थ है - पांच इन्द्रियों के ग्राह्य विषय। ये क्रमशः यों हैं - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श। ये ऊँची-नीची आदि सभी दिशाओं में मिलते हैं । इन्द्रियों के द्वारा आत्मा इनको ग्रहण करता है, सुनता है, देखता है, सूंघता है, चखता है और स्पर्श करता है । ग्रहण करना इन्द्रिय का गुण है, गृहीत विषयों के प्रति मूर्छा करना मन या चेतना का कार्य है। जब मन विषयों के प्रति आसक्त होता है तब विषय मन के लिए बन्धन या आवर्त बन जाता है। आवर्त का शब्दार्थ है - समुद्रादि का वह जल, जो वेग के साथ चक्राकार घूमता रहता है। भँवर चाल / घूम चक्कर । भाव रूप में विषय व संसार अथवा शब्दादि गुण आवर्त हैं। २ शास्त्रकार ने बताया है, रूप एवं शब्द आदि का देखना-सुनना स्वयं में कोई दोष नहीं है, किन्तु उनमें आसक्ति (राग या द्वेष) होने से आत्मा उनमें मूच्छित हो जाता है, फँस जाता है। यह आसक्ति ही संसार है । अनासक्त आत्मा संसार में स्थित रहता हुआ भी संसार-मुक्त कहलाता है। दीक्षित होकर भी जो मुनि विषयासक्त बन जाता है, वह बार-बार विषयों का सेवन करता है। उसका यह आचरण वक्र-समाचार है, कपटाचरण है, क्योंकि ऊपर से वह त्यागी दीखता है, मुनिवेष धारण किये हुए है, किन्तु वास्तव में वह प्रमादी है, गृहवासी है और जिन भगवान् की आज्ञा से बाहर है। प्रस्तुत उद्देशक में वनस्पतिकाय की हिंसा का निषेध किया गया है, यहाँ पर शब्दादि विषयों का वर्णन सहसा अप्रासंगिक-सा लग सकता है। अतः टीकाकार ने इसकी संगति बैठाते हुए कहा है - शब्दादि विषयों की उत्पत्ति का मुख्य साधन वनस्पति ही है। वनस्पति से ही वीणा आदि वाद्य, विभिन्न रंग, रूप, पुष्पादि के गंध, फल आदि के रस व रुई आदि के स्पर्श की निष्पत्ति होती है। अतः वनस्पति के वर्णन से पूर्व उसके उत्पाद / वनस्पति से निष्पन्न वस्तुओं में अनासक्त रहने का उपदेश करके प्रकारान्तर से उसकी हिंसा न करने का ही उपदेश किया है। हिंसा का मूल हेतु भी आसक्ति ही है। अगर आसक्ति न रहे तो विभिन्न दिशाओं/क्षेत्रों में स्थित ये शब्दादि गुण आत्मा के लिए कुछ भी अहित नहीं करते। वनस्पतिकाय-हिंसा-वर्जन ४२. लज्जमाणा पुढो पास । 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगर वे पाणे िहंसति। ४३. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता - इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा वणस्सतिसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति । तं से अहियाए, तं से अबोहीए । अभिधानराजेन्द्र भाग ३, 'गुण' शब्द आचा० शीला० टीका पत्रांक ५६ ३. आचा० टीका पत्रांक ५७।१
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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