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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
इहं च खलु भो अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया । सत्थं चेत्थ अणुवीयि पास । पुढो सत्थं पवेदितं । अदुवा अदिण्णादाणं ।
२३. तू देख ! सच्चे साधक हिंसा (अप्काय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको 'अनगार' घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) द्वारा जल सम्बन्धी आरंभ-समारंभ करते हुए जल-काय के जीवों की हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं।
२४. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए दुःखों का प्रतिकार करने के लिए (इन कारणों से) कोई स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, दूसरों से भी अपकाय की हिंसा करवाता है और अप्काय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा अबोधि का कारण बनती है।
२५. वह साधक यह समझते हुए संयम-साधन में तत्पर हो जाता है।
भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे - यह अप्कायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है।
फिर भी मनुष्य इस में (जीवन, प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) आसक्त होता है। जो कि वह तरह-तरह के शस्त्रों से उदक-काय की हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर अप्कायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल अप्कायिक जीवों की ही नहीं, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक प्रकार के (त्रस एवं स्थावर) जीवों की भी हिंसा करता है।
२६. मैं कहता हूँ - जल के आश्रित अनेक प्रकार के जीव रहते हैं।
हे मनुष्य ! इस अनगार-धर्म में, अर्थात् अर्हत्दर्शन में जल को 'जीव' (सचेतन) कहा है। जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख ! भगवान् ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताये हैं।
जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान - चोरी भी है।
विवेचन- अपकाय को सजीव - सचेतन मानना जैनदर्शन की मौलिक मान्यता है। भगवान् महावीर कालीन अन्य दार्शनिक जल को सजीव नहीं मानते थे, किन्तु उसमें आश्रित अन्य जीवों की सत्ता स्वीकार करते थे। तैत्तिरीय आरण्यक में 'वर्षा' को जल का गर्भ माना है, और जल को 'प्रजनन शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। प्रजननक्षमता' सचेतन में ही होती है, अतः सचेतन होने की धारणा का प्रभाव वैदिक चिंतन पर पड़ा है, ऐसा माना जा सकता है। किन्तु मूलतः अनगारदर्शन को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक जल को सचेतन नहीं मानते थे। इसीलिए यहाँ दोनों तथ्य स्पष्ट किये गये हैं - (१) जल सचेतन है (२) जल के आश्रित अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जीव रहते
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वृत्ति में 'पुढोऽपासं पवेदितं' - पाठान्तर है, जिसका आशय है, शस्त्र-परिणामित उदक ग्रहण करना आपाश - अबन्धन (अनुमत) है। देखिए - श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ३४६, डा. जे. आर. जोशी (पूना) का लेख।