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________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक: सूत्र २३-२६ १५ विवेचन - यहाँ प्रसंग के अनुसार 'लोक' का अर्थ अप्काय किया गया है। पूर्व सूत्रों में पृथ्वीकाय का वर्णन किया जा चुका है, अब अप्काय का वर्णन किया जा रहा है। टीकाकार ने 'अकुतोभय' के अर्थ किये हैं - ( १ ) जिससे किसी जीव को भय न हो, वह संयम तथा (२) जो कहीं से भी भय न चाहता हो वह 'अप्कायिक जीव ।' यहाँ प्रथम संयम अर्थ प्रधानतया वांछित है । १ सामान्यत: अपने अस्तित्व को कोई भी अस्वीकार नहीं करता, पर शास्त्रकार का कथन है, कि जो व्यक्ति अपकायिक जीवों की सत्ता को नकारता है, वह वास्तव में स्वयं की सत्ता को नकारता है। अर्थात् जिस प्रकार स्व का अस्तित्व स्वीकार्य है, अनुभवगम्य है, उसी प्रकार अन्य जीवों का अस्तित्व भी स्वीकारना चाहिए। यही 'आयतुले पयासु' आत्मतुला का सिद्धान्त है। - मूल में 'अभ्याख्यान' शब्द आया है, जो कई विशेष अर्थ रखता है। किसी के अस्तित्व को नकारना, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य, जीव को अजीव, अजीव को जीव यापित करना अभ्याख्यान - विपरीत कथन है । अर्थात् 'जीव को अजीव' बताना उस पर असत्य अभियोग लगाने के समान है। आगमों में अभ्याख्यान शब्द निम्न कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है - दोषाविष्करण - दोष प्रकट करना - ( भगवती ५।६ ) । असद् दोष का आरोपण करना (प्रज्ञापना २२ प्रश्न० २ ) । - दूसरों के समक्ष निंदा करना ( प्रश्न० २ ) । असत्य अभियोग लगाना ( आचा० १ ३ ) । - २३. लज्जमाणा पुढो पास। 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति । २४. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता इमस्स चेव जीवितस्स परिवंदण माणण-पूयणाए जाती- मरण- मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव उदयसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदयसंत्थं समारंभंते समणुजाणति । तं से अहिताए, तं से अबोधीए । १. २. - २५. से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए । सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेसि णातं भवति – एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए । इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्प्रसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे asगरूवे पाणे विहिंसति । २६. से बेमि - संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा । आचा० शीला० टीका पत्रांक-४० । १ सूत्र २५ के बाद कुछ प्रतियों में 'अप्पेगे अंधमब्भे' पृथ्वीकाय का सूत्र १५ पूर्ण रूप से उद्धृत मिलता है। यह सूत्र अग्निकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय एवं वायुकाय के प्रकरण में भी मिलता है। हमारी आदर्श प्रति में यह पाठ नहीं है। -सम्पादक
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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