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श्रुतकेवली भद्रबाहु ने नियुक्तियाँ लिखीं। उसके पश्चात् गोविन्द-वाचक जैसे आचार्यों ने नियुक्तियाँ लिखीं। उन सभी नियुक्ति गाथाओं का संग्रह कर तथा अपनी ओर से कुछ नवीन गाथा बनाकर द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों को व्यवस्थित रूप दिया। यह सत्य है कि नियुक्तियों की परम्परा आगम-काल में भी थी। संखेजाओ निजुत्तीओ' यह पाठ उपलब्ध होता है। उन्हीं मूल नियुक्तियों को आधार बनाकर द्वितीय भद्रबाहु ने उसे अन्तिम रूप दिया है।
इस समय दश आगमों पर नियुक्तियों प्राप्त होती हैं। वे इस प्रकार हैं - १. आवश्यक
६. दशाश्रुतस्कन्ध २. दशवैकालिक
बृहत्कल्प उत्तराध्ययन
८. व्यवहार ४. आचारांग
९. सूर्यप्रज्ञप्ति ५. सूत्रकृतांग
१०. ऋषिभाषित आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर नियुक्ति प्राप्त होती है। मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट दिल्ली द्वारा मुद्रित "आचारांगसूत्रं सूत्रकृतांगसूत्र च" की प्रस्तावना में मुनि श्री जम्बूविजय जी ने आचारांग की नियुक्ति का गाथा-परिमाण ३६७ बताया है और महावीर विद्यालय द्वारा मुद्रित "आयारंगसुत्तं" की प्रस्तावना में उन्होंने यह स्पष्ट किया है। आचारांगसूत्र की चतुर्थ चूला तक आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित ३५६ गाथायें हैं । मुनि श्री जम्बूविजयजी का यह अभिमत है कि नियुक्ति की ३४६ गाथाएँ और महापरिज्ञा अध्ययन की ७ गाथाएँ - इस प्रकार ३५३ गाथाएँ हैं (पृष्ठ ३५९)। तीन गाथाएँ मुद्रित होने में छूट गई हैं। किन्तु ऋषभदेव जी केशरीमलजी रतलाम की ओर से प्रकाशित आवृत्ति में ३५६ गाथाएँ हैं। पर, हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में महापरिज्ञा अध्ययन की नियुक्ति की गाथा १८ हैं । इस प्रकार ३६७ गाथाएँ मिलती हैं। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग तीन, पृष्ठ ११० पर ३५७ गाथाओं का उल्लेख है। नियुक्ति की प्राचीनतम प्रति का आधार ही विशेष विश्वसनीय
है।
आचारांग-नियुक्ति, उत्तराध्ययन नियुक्ति के पश्चात् और सूत्रकृतांग-नियुक्ति के पूर्व रची हुई है। सर्वप्रथम सिद्धों को नमस्कार कर आचार, अंग, श्रुत, स्कन्ध, ब्रह्म, चरण, शस्त्र-परिज्ञा, संज्ञा और दिशा पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया हैं। चरण के छह निक्षेप हैं, दिशा के सात निक्षेप हैं और शेष चार-चार निक्षेप हैं। आचार के पर्यायवाची एकार्थक शब्दों का उल्लेख करते हुए आचारांग के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। आचारांग के नौ ही अध्ययनों का संक्षेप में सार प्रस्तुत किया है। शस्त्र
और परिज्ञा इन शब्दों पर नाम, स्थापना आदि निक्षेपों से चिन्तन किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी अग्र शब्द पर निक्षेप दृष्टि से विचार करते हुए उसके आठ प्रकार बताये हैं - १. द्रव्याग्र २. अवगाहनाग्र ३. आदेशाग्र ४. कालाग्र ५. क्रमाग्र ६.गणनाग्र ७. संचयाग्र ८. भावाग्र। भावान के तीन भेद हैं-१. प्रधानाग्र, २. प्रभूतान, ३. उपकाराग्र । यहाँ पर उपकाराग्र का वर्णन है। चलिकाओं के अध्ययन की भी निक्षेप की दष्टि से व्याख्या की है। चूर्णि
नियुक्ति के पश्चात् "हिमवन्त थेरावली" के अनुसार आचार्य गन्धहस्ती द्वारा विरचित आचारांग-सूत्र के विवरण की सूचना है। आचार्य गन्धहस्ती का समय सम्राट विक्रम के २०० वर्ष के पश्चात् का है। आचार्य शीलांक ने भी प्रस्तुत विवरण का सूचन करते हुए कहा है कि वह अत्यन्त क्लिष्ट होने के कारण मैं बहुत ही सरल और सुगम वृत्ति लिख रहा हूँ।' पर आज वह विवरण उपलब्ध नहीं है, अत: उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ भी लिखा नहीं जा सकता।
आचारांगसूत्र पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया है। उसकी पांचवी चूला निशीथ है । उस पर भाष्य मिलता है। नियुक्ति पद्यात्मक है, किन्तु चूर्णि गद्यात्मक है। चूर्णि की भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है। आचारांगचूर्णि में उन्हीं विषयों का विस्तार किया गया है, जिन विषयों पर आचारांगनियुक्ति में चिन्तन किया गया है। अनुयोग, अंग, आचार, ब्रह्म, वर्ण, आचरण, शस्त्र,
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