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नवम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र ३२०-३२३
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विद्यमान तत्त्वों का भगवान् ध्यान करते थे। लोकचिन्तन क्रमशः चिन्तन-उत्साह, चिन्तन-पराक्रम और चिन्तन-चेष्टा का आलम्बन होता है।
(२) दीर्घदर्शी साधक ऊर्ध्वगति, अधोगति और तिर्यग् (मध्य) गति के हेतु बनने वाले भावों को तीनों लोकों के दर्शन से जान लेता है।
(३) आँखों को अनिमेष विस्फारित करके ऊर्ध्व, अधो और मध्य लोक के बिन्दु पर स्थिर (त्राटक) करने से तीनों लोकों को जाना जा सकता है।
(४) लोक का ऊर्ध्व, अधो और मध्यभाग विषय-वासना में आसक्त होकर शोक से पीड़ित है, इस प्रकार दीर्घदर्शी त्रिलोक-दर्शन करता है।
(५) लोक का एक अर्थ है - भोग्य वस्तु या विषय। शरीर भोग्यवस्तु है, उसके तीन भाग करके त्रिलोकदर्शन करने से चित्त कामवासना से मुक्त होता है। नाभि से नीचे - अधोभाग, नाभि से ऊपर - ऊर्ध्वभाग और नाभिस्थान - तिर्यग्भाग।'
भगवान् अकषायी, अनासक्त, शब्द और रूप आदि में अमूछित एवं आत्मसमाधि (तपःसमाधि या निर्वाणसमाधि) में स्थित होकर ध्यान करते थे। वे ध्यान के लिए समय, स्थान या वातावरण का आग्रह नहीं रखते थे।
ण पमायं सइं वि कुव्वित्था - छद्मस्थ अवस्था तब तक कहलाती है, जब तक ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्म सर्वथा क्षीण न हों। प्रमाद के पाँच भेद मुख्य हैं - मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं - भगवान् ने कषायादि प्रमादों का सेवन नहीं किया। चूर्णिकार ने अर्थ किया है - भगवान् ने छद्मस्थ दशा में अस्थिक ग्राम में एक बार अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर निद्रा प्रमाद का सेवन नहीं किया। इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि भगवान् अपनी साधना में सर्वत्र प्रतिपल अप्रमत्त रहते थे।
॥ चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥
॥ओहाणसुयं समत्तं । नवममध्ययनं समाप्तम् ॥
॥आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त ॥
१.
आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० ११३ के आधार पर (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक ३१५ (ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण सू० ३२१ ।