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________________ ३०६ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध दी थी। उनका मन, बुद्धि, इन्द्रिय-विषय, अध्यवसाय और भावना; ये सब एक ही दिशा में गतिमान हो गये थे। ____ अपने शरीर-निर्वाह की न तो वे चिन्ता करते थे, न ही वे आहार-प्राप्ति के विषय में किसी प्रकार का ऐसा संकल्प ही करते थे कि "ऐसा सरस स्वादिष्ट आहार मिलेगा, तभी लूँगा, अन्यथा नहीं।" आहार-पानी प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का पाप-दोष होने देना, उन्हें जरा भी अभीष्ट नहीं था। अपने लिए आहार की गवेषणा में जाते समय रास्ते में किसी भी प्राणी के आहार में अन्तराय न लगे, किसी का भी वृत्तिच्छेद न हो, किसी को भी अप्रतीति (भय) या अप्रीति (द्वेष) उत्पन्न न हो, इस बात.की पूरी सावधानी रखते थे।' 'अण्णगिलायं' - शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने पर्युषित - बासी भोजन किया है। भगवत सूत्र की टीका में 'अन्नग्लायक' शब्द की व्याख्या की गई है - जो अन्न के बिना ग्लान हो जाता है, वह अन्नग्लायक कहलाता है। क्षुधातुर होने के कारण वह प्रातः होते ही जैसा भी, जो कुछ बासी, ठंडा भोजन मिलता है, उसे खा लेता है। यद्यपि भगवान् क्षुधातुर स्थिति में नहीं होते थे, किन्तु ध्यान आदि में विघ्न न आये तथा समभाव साधना की दृष्टि से समय पर जैसा भी बासी-ठण्डा भोजन मिल जाता, बिना स्वाद लिए उसका सेवन कर लेते थे। 'सूइयं' - आदि शब्दों का अर्थ - 'सूइयं' के दो अर्थ हैं - दही आदि से गीले किए हुए भात अथवा दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ।सुक्कं = सूखा, सीयं पिंडं = ठण्डा भोजन, पुराण कुम्मासं = बहुत दिनों से सिजोया हुआ उड़द, बुक्कसं = पुराने धान का चावल, पुराना सत्तु पिण्ड, अथवा बहुत दिनों का पड़ा हुआ गोरस, या गेहूँ का मांडा, पुलागं = जौ का दलिया। .. ऐसा रूखा-सूखा जैसा भी भोजन प्राप्त होता, वह पर्याप्त और अच्छा न मिलता तो भी भगवान् राग-द्वेष रहित होकर उसका सेवन करते थे, यदि वह निर्दोष होता। भगवान् की ध्यान-परायणता - भगवान् शरीर की आवश्यकताएँ होती तो उन्हें सहजभाव से पूर्ण कर लेते और शीघ्र ही ध्यान-साधना में संलग्न हो जाते। वे गोदुह, वीरासन, उत्कट आदि आसनों में स्थित होकर मुख को टेढा या भींचकर विकत किए बिना ध्यान करते थे। उनके ध्यान के आलम्बन मख्यतया ऊर्ध्वलोक. अधोलोक और मध्यलोक में स्थित जीव-अजीव आदि पदार्थ होते थे। इस पंक्ति की मुख्यतया पाँच व्याख्याएँ फलित होती हैं - ऊर्ध्वलोक = आकाशदर्शन, अधोलोक = भूगर्भदर्शन और मध्यलोक = तिर्यग्भित्तिदर्शन। इन तीनों लोकों में १. आचारांग वृत्ति मूलपाठ पत्रांक ३१३ के आधार पर (क) भगवती सूत्र वृत्ति पत्र ७०५ (ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण सूत्र ३१२ (क) आचा०शीला० टीका पत्रांक ३१३ (ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण सूत्र ३१९ (क) आचा०शीला० टीका पत्रांक ३१५ (ख) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण सूत्र ३२० देखिए आवश्यक चूर्णि पृ० ३२४ में त्रिलोकध्यान का स्वरूप- 'उ९ अहेयं तिरियं च, सव्वलोए झायति समित। उड्डलोए जे अहे वि तिरिए वि, जेहिं वा कम्मादाणेहिं उडे गमति, एवं अहे तिरियं च।अहे संसार संसारहेउं च कम्मविवागंच ज्झायति,तं मोक्खं मोक्खहेउं मोक्खसहं च ज्झायति, पेच्चमाणो आयमाहिं परसममाहिं च अहवा नाणादिसमाहिं।'
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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