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३.
'महापरिज्ञा'-सप्तम अध्ययन
प्राथमिक
आचारांग सूत्र (विच्छिन्न) है । १
के सातवें अध्ययन का नाम 'महापरिज्ञा' है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध
'महापरिज्ञा' का अर्थ है महान् विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोह जनित दोषों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उनका त्याग करना ।
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तात्पर्य यह है कि साधक मोह उत्पन्न होने के कारणों एवं आकांक्षाओं, कामनाओं, विषयभोगों की लालसाओं आदि से बँधने वाले मोहकर्म के दुष्परिणामों को जानकर उनका क्षय करने के लिए महाव्रत, , समिति, गुप्ति, परीषह - उपसर्ग सहनरूप तितिक्षा, विषय-कषायविजय, बाह्य - आभ्यन्तर तप, संयम, स्वाध्याय एवं आत्मालोचन आदि को स्वीकार करे,
महापरिज्ञा है ।
इस पर लिखी हुई आचारांगनिर्युक्ति छिन्न-भिन्न रूप में आज उपलब्ध है। उसके अनुशीलन से पता चलता है कि नियुक्तिकार के समय में यह अध्ययन उपलब्ध रहा होगा। निर्युक्तिकार ने 'महापरिन्ना' शब्द के 'महा' और 'परिन्ना' इन दो पदों का निरूपण करने के साथसाथ 'परिन्ना' के प्रकारों का भी वर्णन किया है एवं अन्तिम गाथा में बताया है कि साधक को देवांगना, नरांगना आदि के मोहजनित परीषहों तथा उपसर्गों को सहन करके मन, वचन, , काया से उनका त्याग करना चाहिए । इस परित्याग का नाम महापरिज्ञा है ।
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सात उद्देशकों से युक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु के अनुसार मोहजन्य परीषहों या उपसर्गों का वर्णन था । २ वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है 'संयमादि गुणों से युक्त साधक की साधना में कदाचित मोहजन्य परीषह या उपसर्ग विघ्नरूप में आ पड़ें तो उन्हें समभावपूर्वक (सम्यग्ज्ञानपूर्वक) सहना चाहिए। ३
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यह मत आचारांगनिर्युक्ति, चूर्णि एवं वृत्ति के अनुसार है। स्थानांग तथा समवायांग सूत्र के अनुसार 'महापरिण्णा' नवम अध्ययन है। नंदिसूत्र की हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार यह अष्टम अध्ययन था । देखें आचारांग मुनि जम्बूविजय जी की प्रस्तावना, पृष्ठ २८
'मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा' - आचा० निर्युक्ति गा० ३४
सप्तमेवयम् संयमादिगुणयुक्तस्य कदाचिन्मोहसमुत्थाः परीषहा उपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते सम्यक् सोढव्याः । - आचा० शीला० टीका पत्रांक २५९