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षष्ठ अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र १९६-१९८
२१३ प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन-विरति आदि के रूप में धर्म का-पृथक्करण करे तथा यह भी भलीभाँति देखे कि यह पुरुष कौन है ? किस देवताविशेष को नमस्कार करता है ? अर्थात् किस धर्म का अनुयायी है, आग्रही है या अनाग्रही है ? इस प्रकार का विचार करे। तदनन्तर वह आगमवेत्ता साधक व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, धर्माचरण आदि का फल बताए - धर्मोपदेश करे।
___धर्म-श्रोता कैसा हो ? इस सम्बन्ध में शास्त्र के पाठानुसार वृत्तिकार स्पष्टीकरण करते हैं - वह आगमवेत्ता स्व-पर सिद्धान्त का ज्ञाता मुनि यह देखे कि जो भाव से उत्थित पूर्ण संयम पालन के लिए उद्यत हों, उन्हें अथवा सदैव उत्थित स्वशिष्यों को समझाने के लिए अथवा अनुत्थित - श्रावकों आदि को, धर्म-श्रवण के जिज्ञासुओं को अथवा गुरु आदि की पर्युपासना करने वाले उपासकों को संसार-सागर पार करने के लिए धर्म का व्याख्यान करे।
धर्म के किस-किस रूप का व्याख्यान करे? इसके लिए शास्त्रकार ने बताया है - 'संति...अणतिवत्तियं...।'
'अणतिवत्तियं' - शब्द के चूर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं २ - (१) जिस धर्मकथा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का अतिव्रजन-अतिक्रमण न हो, वैसी अनतिवाजिक धर्मकथा कहे, अथवा जिस कथा से अतिपात (हिंसा) न हो, वैसी अनतिपातिक धर्मकथा कहे । वृत्तिकार ने इसका दूसरा ही अर्थ किया है - "आगमों में जो वस्तु जिस रूप में कही है, उस यथार्थ वस्तुस्वरूप का अतिक्रमण/अतिपात न करके धर्मकथा कहे।"
धर्मकथा किसके लिए न करे? - शास्त्रकार ने धर्माख्यान के साथ पांच निषेध भी बताए हैं - (१) अपने आपको बाधा पहुँचती हो तो, (२) दूसरे को बाधा पहुँचती हो तो, (३) प्राण, भूत, जीव, सत्त्व को बाधा पहुँचती हो तो, (४) किसी जीव की हिंसा होती हो तो, (५) आहारादि की प्राप्ति के लिए।
आत्माशातना-पराशातना - आत्मा की आशातना का वृत्तिकार ने अर्थ किया है - अपने सम्यग्दर्शन आदि के आचरण में बाधा पहुँचाना आत्माशातना है। श्रोता की आशातना - अवज्ञा या बदनामी करना पराशातना है। ३
धर्म व्याख्यानकर्ता की योग्यताएँ - शास्त्रकार ने धर्माख्यानकर्ता की सात योग्यताएँ बतायी हैं - (१) निष्पक्षता, (२) सम्यग्दर्शन, (३) सर्वभूतदया, (४) पृथक्-पृथक् विश्लेषण करने की क्षमता, (५) आगमों का ज्ञान, (६) चिंतन करने की क्षमता और (७) आशातना - परित्याग।
नागार्जुनीय वाचना में जो पाठ अधिक है । - जिसके अनुसार निम्नोक्त गुणों से युक्त मुनि धर्माख्यान करने में समर्थ होता है - (१) जो बहुश्रुत हो, (२) आगम-ज्ञान में प्रबुद्ध हो, (३) उदाहरण एवं हेतु-अनुमान में कुशल हो, (४) धर्मकथा की लब्धि से सम्पन्न हो, (५) क्षेत्र, काल और पुरुष के परिचय में आने पर - यहपुरुष कौन है? किस दर्शन (मत) को मानता है, इस प्रकार परीक्षा करने में कुशल हो। इन गुणों से सुसम्पन्न साधक ही धर्माख्यान कर सकता है।
सूत्रकृतांगसूत्र में धर्माख्यानकर्ता की आध्यात्मिक क्षमताओं का प्रतिपादन किया गया है, यथा - (१) मन, १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २३२ २.. "अणतिवत्तियं नाणादीणि जहा ण अतिवयति तहा कहेति ।
अहवा अतिपतणं अपिपातो...ण अतिवातेति अणतिवातियं ।"- आचारांग चूर्णि पृष्ठ ६७ आचा० शीला० टीका पत्रांक २३२ "जे खलु भिक्खू बहुस्सुतो बब्भागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहियलद्धिसंपण्णे खित्तं कालं पुरिसं समासज के अयं पुरिसं कं वा दरिसणं अभिसंपण्णे एवं गुणजाईए पभू धम्मस्स आघवित्तए।"- आचारांग चूर्णि पृ०६७