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षष्ठ अध्ययन : पंचम उद्देशक: सूत्र १९६-१९८
वह मुनि सद्ज्ञान सुनने के इच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे (धर्माचरण के लिए) उत्थित (उद्यत) हों या अनुत्थित (अनुद्यत), शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता), मार्दव (कोमलता), लाघव (अपरिग्रह) एवं अहिंसा का प्रतिपादन करे ।
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वह भिक्षु समस्त प्राणियों, सभी भूतों सभी जीवों और समस्त सत्त्वों का हितचिन्तन करके ( या उनकी वृत्तिप्रवृत्ति के अनुरूप विचार करके) धर्म का व्याख्यान करे ।
१९७. भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा (आशातना) न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए ।
किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, (ऐसा धर्मव्याख्यान न देने वाला) तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी ( धर्मोपदेश न करने वाला) वह महामुनि संसारप्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के लिए असंदीन द्वीप की तरह शरण होता है ।
इस प्रकार वह (संयम में) उत्थित, स्थितात्मा (आत्मभाव में स्थित ), अस्नेह, अनासक्त, अविचल (परीषहों और उपसर्गों आदि से प्रकम्पित), चल (विहारचर्या करने वाला), अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से बाहर न ले जाने वाला मुनि (अप्रतिबद्ध ) होकर परिव्रजन (विहार) करे ।
वह सम्यग्दृष्टिमान् मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यक्रूप में जानकर (कषायों और विषयों) को सर्वथा उपशान्त करे ।
१९८. इसके (विषय- कषायों को शान्त करने के लिए तुम आसक्ति (आसक्ति के विपाक) को देखो।
ग्रन्थों (परिग्रह) में गृद्ध और उनमें निमग्न बने हुए, मनुष्य कामों से आक्रान्त होते हैं ।
• इसलिए मुनि निःसंग रूप संयम (संयम के कष्टों) से उद्विग्न-खेदखिन्न न हो ।
जिन संगरूप आरम्भों से (विषय- निमग्न) हिंसक वृत्ति वाले मनुष्य उद्विग्न नहीं होते, ज्ञानी मुनि उन सब आरम्भों को सब प्रकार से, सर्वात्मना त्याग देते हैं। वे ही मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाले होते
हैं।
ऐसा मुनि त्रोटक (संसार - शृंखला को तोड़ने वाला) कहलाता है।
. ऐसा मैं कहता हूँ ।
शरीर के व्यापात को (मृत्यु के समय की पीड़ा को ) ही संग्रामशीर्ष (युद्ध का अग्रिम मोर्चा ) कहा गया है। (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का ) पारगामी होता है।
(परीषहों और उपसर्गों से अथवा किसी के द्वारा घातक प्रहार से) आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये फलक की भांति (स्थिर या कृश) रहता है । मृत्युकाल निकट आने पर ( विधिवत् संलेखना से शरीर और कषाय को कृश बनाकर समाधिमरण स्वीकार करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए) जब तक शरीर का (आत्मा से) भेद (वियोग ) न हो, तब तक वह मरणकाल (आयुष्य क्षय) की प्रतीक्षा करे ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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विवेचन - इस उद्देशक में परिषहों और उपसर्गों को समभाव से सहने और विवेक तथा समभावपूर्वक सबको उनकी भूमिका के अनुरूप धर्मोपदेश देने की प्रेरणा दी गयी है।