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षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक
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'असंदीन द्वीप' वह है जो कभी पानी में नहीं डूबता, इसी प्रकार 'असंदीन दीप' वह है जो कभी बुझता नहीं, जैसे सूर्य, चन्द्र आदि का प्रकाश । अध्यात्म क्षेत्र में सम्यक्त्वरूप भाव द्वीप या ज्ञानरूप दीप भी धर्मरूपी जहाज में बैठकर संसार-समुद्र पार करने वाले मोक्ष-यात्रियों को आश्वासनदायक एवं प्रकाशदायक होता है। १ - प्रतिपाती सम्यक्त्व संदीन भावद्वीप है, जैसे औपशमिक और क्षायोपमिक सम्यक्त्व और अप्रतिपाती (क्षायिक) सम्यक्त्व असंदीन भाव-द्वीप है। इसी तरह संदीन भाव दीप श्रुत ज्ञान है और असंदीन भाव-दीप केवलज्ञान या आत्म-ज्ञान है। आर्योपदिष्ट धर्म के क्षेत्र में असंदीन भावद्वीप क्षायिक सम्यक्त्व है और असंदीन भावदीप आत्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। अथवा विशिष्ट साधुपरक व्याख्या करने पर - भावद्वीप या भावदीप विशिष्ट असंदीन साधु होता है, जो संसारसमुद्र में डूबते हुए यात्रियों या धर्म-जिज्ञासुओं को चारों ओर कर्मास्रव रूपी जल से सुरक्षित धर्मद्वीप की शरण में लाता है । अथवा सम्यग्ज्ञान से उत्थित परीषहोपसर्गों से अक्षोभ्य साधु असंदीन दीप है, जो मोक्षयात्रियों को शास्त्रज्ञान का प्रकाश देता रहता है।
अथवा धर्माचरण के लिए सम्यक् उद्यत साधु अरति से बाधित नहीं होता, इस सन्दर्भ में उस धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर यह पंक्ति दी गयी कि असंदीन द्वीप की तरह वह आर्य-प्रदेशित धर्म भी अनेक प्राणियों के लिए सदैव शरणदायक एवं आश्वासन हेतु होने से असंदीन है । आर्य-प्रदेशित (तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट) धर्म कष, ताप, छेद के द्वारा सोने की तरह परीक्षित है, या कुतर्कों द्वारा अकाट्य एवं अक्षोभ्य है, इसलिए वह धर्म असंदीन है। २
'जहा से दियापोते' - यहाँ पक्षी के बच्चे से नवदीक्षित साधु को भागवत-धर्म में दीक्षित-प्रशिक्षित करने के व्यवहार की तुलना की गई है। जैसे मादा पक्षी अपने बच्चे को अण्डे में स्थित होने से लेकर पंख आकर स्वतंत्र रूप से उड़ने योग्य नहीं होता, तब तक उसे पालती-पोसती है। इसी प्रकार महाभाग आचार्य भी नवदीक्षित साधु को दीक्षा देने से लेकर समाचारी का शिक्षण-प्रशिक्षण तथा शास्त्र-अध्यापन आदि व्यवहारों में क्रमशः गीतार्थ (परिपक्व) होने तक उसका पालन-पोषण-संवर्द्धन करते हैं । इस प्रकार भगवान् के धर्म में अनुस्थित शिष्यों को संसार-समुद्र पार करने में समर्थ बना देना परमोपकारक आचार्य अपना कर्त्तव्य समझते हैं । ३
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक
गौरवत्यागी
१९०. एवं ते सिस्सा दिया य रातो य अणुपुव्वेण वायिता तेहिं महावीरेहिं पण्णाणमंतेहिं तेसंतिए पण्णाणमुवलब्भ हेच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति । वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं णो त्ति मण्णमाणा १. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२४ २. आचा० शीला टीका पत्रांक २२४ ३. आचा० शीला० टीका पत्रांक २२४