SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'धुयं' छ?मज्झयणं पढमो उद्देसओ 'धूत' छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक सम्यग्ज्ञान का आख्यान १७७. ओबुझमाणे इह माणवेसु आघाई ' से णरे, जस्स इमाओ जातीओ सव्वतो सुपडिलेहिताओ भवंति आघाति से णाणमणेलिसं । से किट्टति तेसिं समुट्ठिताणं निक्खित्तदंडाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं ।। १७७. इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता (अवबुद्ध) वह (अतीन्द्रिय ज्ञानी या श्रुतकेवली) पुरुष (ज्ञान का - धार्मिक ज्ञान का) आख्यान करता है। जिसे ये जीव-जातियाँ (समग्र संसार) सब प्रकार से भली-भाँति ज्ञात होती हैं, वही विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है। वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति-मार्ग का निरूपण (यथार्थ आख्यान) करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने दण्डरूप हिंसा का त्याग कर स्वयं को. संयमित किया है, जो समाहित (एकाग्रचित्त या तप-संयम में उद्यत) हैं तथा सम्यग् ज्ञानवान् हैं। विवेचन - प्रथम उद्देशक में धूतवाद की परिभाषा समझाने से पूर्व सम्यग्ज्ञान एवं मोह से आवृत्त जीवों की विविध दुःखों और रोगों से आक्रान्त दशा का सजीव वर्णन प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् स्वयंस्फूर्त तत्त्वज्ञान के सन्दर्भ में स्वजन-परित्याग रूप धूत का दिग्दर्शन कराया गया है। '....आघाई से णरे' इस पंक्ति के द्वारा शास्त्रकार ने जैनधर्म के एक महान् सिद्धान्त की ओर संकेत किया है कि जब भी धर्म का, ज्ञान का, या मोक्ष-मार्ग विषयक तत्त्वज्ञान का निरूपण किया जाता है, वह ज्ञानी-पुरुष के द्वारा ही किया जाता है, वह अपौरुषेय नहीं होता, न ही बौद्धों की तरह दीवार आदि से धर्मदेशना प्रकट होती है, और न वैशेषिकों की तरह उलूकभाव से पदार्थों का आविर्भाव होता है। चार घातिकर्मों के क्षय हो जाने पर केवलज्ञान से सम्पन्न होकर मनुष्य-देह से युक्त (भवोपग्राही कर्मों के रहते मनुष्यभव में स्थित) तथा स्वयं कृतार्थ होने पर भी प्राणियों के हित के लिए धर्मसभा/समवसरण में वह नरपुङ्गव धर्म या ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं। ___अतीन्द्रिय ज्ञानी या श्रुतकेवली भी धर्म या असाधारण ज्ञान का व्याख्यान कर सकते हैं, जिनके विशिष्ट ज्ञान के प्रकाश में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की प्राणिजातियाँ सूक्ष्मबादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक आदि रूपों में सभी प्रकार के संशय-विपर्यय-अनध्यवसायादि दोषों से रहित होकर स्पष्ट रूप से जानी-समझी होती हैं । २ १. पाठान्तर है - अग्घादि, अक्खादि, अग्घाति, अग्याइ । २. आचा० शीला० टीका पत्रांक २११
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy