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पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र १६९ सम्यक्-असम्यक्-विवेक
१६९. सडिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स समियं ति मण्णमाणस्स एगदा समिया होति १, समियं ति मण्णमाणस्स एगदा असमिया होति २, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया समिया होति ३, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया असमिया होति ४, समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होति उवेहाए ५, असमियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होति उवेहाए ६। उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया - उवेहाहि समियाए', इच्चेवं तत्थ २ संधी झोसितो भवति ।
से उद्वितस्स ठितस्स गतिं समणुपासह। एत्थ वि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेजा।
१६९. श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा (आचार्याज्ञा या जिनोपदेश के अनुसार, ज्ञान) शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक् (मानता) रहता है । (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय (ज्ञेय की गहनता को न समझ पाने के कारण मति-भ्रमवश) उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है। (३) कोई मुनि (प्रव्रज्याकाल में) असम्यक् (मिथ्यात्वांश के उदयवश) मानता है किन्तु एक दिन (शंका समाधान हो जाने से उसका व्यवहार) सम्यक् हो जाता है। (४) कोई साधक (प्रव्रज्या के समय आगमोक्त ज्ञान न मिलने से) उसे असम्यक् मानता है और बाद में भी (कुतर्क-बुद्धि के कारण) असम्यक् मानता रहता है। (५) (वास्तव में) जो साधक (निष्पक्षबुद्धि या निर्दोषहृदय से किसी वस्तु को सम्यक् मान रहा है, वह (वस्तु प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में) सम्यक् हो या असम्यक्, उसकी सम्यक् उत्प्रेक्षा (सम्यक् पर्यालोचन - छानबीन या शुद्ध अध्यवसाय) के कारण (उसके लिए) वह सम्यक् ही होती है। (६) (इसके विपरीति) जो साधक किसी वस्तु को असम्यक् मान रहा है, वह (प्रत्यक्षज्ञानियों की दृष्टि में) सम्यक् हो या असम्यक्, उसके लिए असम्यक् उत्प्रेक्षा (अशुद्ध अध्यवसाय) के कारण वह असम्यक् ही होती है।
(इस प्रकार) उत्प्रेक्षा (शुद्ध अध्यवसाय पूर्वक पर्यालोचन) करने वाला उत्प्रेक्षा नहीं करने वाले (मध्यस्थभाव से चिन्तन नहीं करने वाले) से कहता है - सम्यक् भाव समभाव-माध्यस्थभाव से उत्प्रेक्षा (पर्यालोचना) करो।
इस (पूर्वोक्त) प्रकार से व्यवहार में होने वाली सम्यक्-असम्यक् की गुत्थी (संधि) सुलझाई जा सकती है। (अथवा इस पद्धति से (मिथ्यात्वादि के कारण होने वाली) कर्मसन्ततिरूप सन्धि तोड़ी जा सकती है।)
तुम (संयम में सम्यक् प्रकार से) उत्थित (जागृत-पुरुषार्थवान्) और स्थित (संयम में शिथिल) की गति देखो।
तुम बाल भाव (अज्ञान-दशा) में भी अपने-आपको प्रदर्शित मत करो। विवेचन - सब श्रमण - आत्मसाधक प्रत्यक्षज्ञानी नहीं होते और न ही सबका ज्ञान, तर्कशक्ति, बुद्धि, 'बूया एवं उवेह समियाए' यह पाठान्तर चूर्णि में है। कहता है - इस प्रकार से सम्यक् रूप से पर्यालोचन कर। यहाँ तत्थ-तत्थ दो बार हैं। चूर्णिकार व्याख्या करते हैं - "तत्थ-तत्थ नाणंतरे, दंसणचरित्तंतरे लिंगंतरे वा संधाणं संधी।
- इस प्रकार वहाँ वहाँ ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर और वेशान्तर में होने वाली समस्या (संधि) सुलझाई जा सकती है।" ३. "णो दरिसिजा" पाठान्तर चूर्णि में है, जिसका अर्थ होता है - 'मत दिखाओ'।