________________
आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
(१) मन का समाधान। (२) शंका का निराकरण । (३) चित्त की एकाग्रता और (४) ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप सम्यग्भाव। यह भाव -समाधि कही जाती है।
वृत्तिकार के अनुसार यहाँ समाधि का अर्थ है - ज्ञान - दर्शन - चारित्र से युक्त चित्त की स्वस्थता। विभिन्न सूत्रों के अनुसार समाधि के निम्न अर्थ भी मान्य हैं
१६४
(१) सम्यग् मोक्ष-मार्ग में स्थित होना । १ (२) राग-द्वेष - परित्याग रूप धर्मध्यान। २(३) अच्छा स्वास्थ्य । (४) चित्त की प्रसन्नता, स्वस्थता । ४ (५) निरोगता । ५ (६) योग। ६ (७) सम्यग्दर्शन, मोक्ष आदि विधि । ७ (८) चित्त की एकाग्रता । ' (९) प्रशस्त भावनः । ९
दशवैकालिक १° में चार प्रकार की समाधि का विस्तृत वर्णन है ।
१०
'तमेव सच्चं' - इस पँक्ति का आशय यह है कि साधक को कदाचित् स्व-पर- समय के ज्ञाता आचार्य के अभाव में सूक्ष्म, व्यवहित (काल से दूर), दूरवर्ती ( क्षेत्र से दूर) पदार्थों के विषय में दृष्टान्त, हेतु आदि के न होने से सम्यग्ज्ञान न हो पाए तो भी शंका - विचिकित्सादि छोड़ कर अनन्य श्रद्धापूर्वक यही सोचना चाहिए कि वही एकमात्र सत्य है, नि:शंक है, जो राग-द्वेष विजेता तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है। कदाचित् कोई शंका उत्पन्न हो जाए, या पदार्थ को सम्यक् प्रकार से नहीं जाना जा सके तो यह भी सोचना चाहिए -
१.
३.
५.
७.
९.
१०.
११.
मिथ्या भाषण के मुख्य दो कारण हैं - (१) कषाय और (२) अज्ञान। इन दोनों कारणों से रहित वीतराग और सर्वज्ञ कदापि मिथ्या नहीं बोलते। इसलिए उनके वचन तथ्य, सत्य हैं, यथार्थवस्तुस्वरूप के दर्शक हैं ।
भगवतीसूत्र में कांक्षामोहनीय कर्म-निवारण के सन्दर्भ में इसी वाक्य को आधार (आलम्बन) मानकर मन में धारण करने से जिनाज्ञा का आराधक माना गया है । १९
वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ब्रुवते क्वचित् । यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥
सम० २०
आव० मल० २
व्यव० उ० १
२. सूत्रकृत् १ । २।२
४.
सम० ३२
उत्तरा० २
सूत्रकृत १ । १३
द्वात्रि० द्वा० ११
स्थानांग २ । ३ (उक्त सभी स्थल देखें अभि० राजेन्द्र भाग ७ पृ० ४१९-२० )
अध्ययन ९ में विनयसमाधि, तपः समाधि, आचारसमाधि का सुन्दर वर्णन है। (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक २०१
(ख) अत्थि णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ?
६.
८.
हंता अस्थि ।
कहन्नं समणा विणिग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ?
गोयमा ! तेसु तेसु नाणंतरेसु चरित्तंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना, भेयसमावन्ना, कलुससमावन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणा वि नग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ।
तत्थालंबण ! तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।
सेणू भंते! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति ? -
एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति । शतक १, उ० ३, सूत्र १७०