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पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र १६४-१६५
१५९ एतं मोणं समणुवासेजासि त्ति बेमि।
॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ १६४. वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति (सम्यक्प्रवृत्ति) से युक्त, (ज्ञानादि-) सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (ब्रह्मचर्य से विचलित करने-उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन (परिप्रेक्षण) करता है -
'यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा?' अर्थात् मुझे क्या सुख प्रदान कर सकेगा ? (तनिक भी नहीं)
(वह स्त्री-स्वभाव का चिन्तन करे कि जितनी भी लोक में स्त्रियाँ हैं, वे मोहरूप हैं, भाव बन्धन रूप हैं), वह स्त्रियाँ परम आराम (चित्त को मोहित करने वाली) हैं। (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक-सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?)
ग्रामधर्म - (इन्द्रिय-विषयवासना) से उत्पीड़ित मुनि के लिए मुनीन्द्र तीर्थंकर महावीर ने यह उपदेश दिया है कि
वह निर्बल (निःसार) आहार करे, ऊनोदरिका (अल्पाहार) भी करे - कम खाए, ऊर्ध्व स्थान (टांगों को ऊँचा और सिर को नीचा, अथवा सीधा खड़ा) होकर कायोत्सर्ग करे - (शीतकाल या 'उष्णकाल में खड़े होकर आतापना ले), ग्रामानुग्राम विहार भी करे, आहार का परित्याग (अनशन) करे, स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करे।
(स्त्री-संग में रत अतत्त्वदर्शियों को कहीं-कहीं) पहले (अर्थोपार्जनादिजनित ऐहिक) दण्ड मिलता है और पीछे (विषयनिमित्तक कर्मफलजन्य दुःखों का) स्पर्श होता है, अथवा कहीं-कहीं पहले (स्त्री-सुख) स्पर्श मिलता है, बाद में उसका दण्ड (मार-पीट, सजा, जेल अथवा नरक आदि) मिलता है।
इसलिए ये काम-भोग कलह (कषाय) और आसक्ति (द्वेष और राग) पैदा करने वाले होते हैं। स्त्री-संग से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को आगम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझ कर आत्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे । अर्थात् स्त्री का सेवन न करने का सुदृढ़ संकल्प करे। - ऐसा मैं कहता हूँ।
१६५. ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए) कामकथा - कामोत्तेजक कथा न करे, वासनापूर्वक दृष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को न देखे, परस्पर कामुक भावों-संकेतों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्व न करे, शरीर की साजसज्जा से दूर रहे (अथवा उनकी वैयावृत्य न करे), वचनगुप्ति का पालक वाणी से कामुक आलाप न करे - वाणी का संयम रखे, मन को भी कामवासना की ओर जाते हुए नियंत्रित करे, सतत पाप का परित्याग करे।
इस (अब्रह्मचर्य-विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक् प्रकार से बसा ले-जीवन में उतार ले। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में ब्रह्मचर्य की साधना के विघ्नरूप स्त्री-संग का वर्णन तथा विषयों की उग्रता कम
_ 'एतं मोणं' पाठ का अर्थ चूर्णि में किया गया है - एतं मोणं - मुणिभावो मोणं, सम्मं नाम ण आसंसप्पओगादीहि उवहत
अण्णिसिज्जासि। अहवा तित्थगरादीहि वसिमं अणुवसिज्जासि। - मुनिभाव या मुनित्व का नाम मौन है। जीवन-मरणादि की आकांक्षा रहित होना ही सम्यक् है। सम्यक् रूप से अन्वेषण करो अथवा तीर्थंकरादि द्वारा जिसे बसाया गया था, उस (मुनित्व) को जीवन में बसाओ - उतारो।