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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
एक समान प्राणिवध होने पर भी कर्मबन्ध एक-सा नहीं होता, वह होता है - कषायों की तीव्रता - मन्दता या परिणामों की धारा के अनुरूप ।
कायस्पर्श से किसी प्राणी का वध या उसे परिताप हो जाने पर प्रस्तुत सूत्र द्वारा वृत्तिकार ने उस हिंसा के पांच परिणाम सूचित किये हैं -
(१) शैलेशी (निष्कम्प अयोगी) अवस्था प्राप्त मुनि के द्वारा प्राणी का प्राण-वियोग होने पर भी बन्ध के उपादान कारण - योग का अभाव होने से कर्मबन्ध नहीं होता ।
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(२) उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली (वीतराग) के स्थिति-निमित्तक कषाय न होने से सिर्फ दो समय की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है।
(३) अप्रमत्त (छद्मस्थ - छठे से दशवें गुणस्थानवर्ती) साधु के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः आठ मुहूर्त की स्थितिवाला कर्मबन्ध होता है ।
(४) विधिपूर्व प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त साधु (षष्ठगुणस्थानवर्ती) से यदि अनाकुट्टिवश (अकामतः) किसी का होता है तो उसके जघन्यतः अन्तमुहूर्त और उत्कृष्टतः ८ वर्ष की स्थिति का कर्मबन्ध होता है, जिसे वह उसी भव (जीवन) में वेदन करके क्षीण कर देता है ।
(५) आगमोक्त कारण के बिना आकुट्टिवश यदि किसी प्राणी की हिंसा हो जाती है, तो उससे जनित कर्मबन्ध को वह सम्यक् प्रकार से परिज्ञात करके प्रायश्चित १ द्वारा ही समाप्त कर सकता है। २
ब्रह्मचर्य - विवेक
१६४. से पभूतदंसी पभूतपरिण्णाणे उवसंते समिए सहिते सदा जते दठ्ठे विप्पडिवेदेति अप्पाणंकिमेस जणो करिस्सति ?
उब्बाधिजमाणे गामधम्मेहिं अवि णिब्बलासए, अवि ओमोदरियं कुज्जा,
अवि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अवि आहारं वोच्छिदेज्जा, अवि चए इत्थीसु मणं ।
एस से परमारामो जाओ लोगंसि इत्थीओ।
मुणा हुतं वेदितं ।
१.
२.
पुव्वं दंडा पच्छा फासा पच्छा दंडा ।
इच्चेते कलहासंगकरा भवंति ।
पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्ज अणासेवणाए त्ति बेमि ।
सदा पाव
.
अवि उड्डुं ठाणं ठाएज्जा,
१६५. से णो काहिए, णो संपसारए, णो मामए, णो कतकिरिए, वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे परिवज्जए
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आगमों में इस प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं- (१) आलोचनार्ह, (२) प्रतिक्रमणार्ह, (३) तदुभयार्ह, (४) विवेकार्ह, (५) व्युत्सर्गार्ह, (६) तपार्ह, (७) छेदार्ह, (८) मूलाई, (९) अनवस्थाप्यार्ह और (१०) पाराञ्चिका ।
- स्था० ४। १ । २६३ तथा दशवै० १ । १ हारिभद्रीय टीका
आचा० शीला० टीका पत्रांक १९७