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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
होती है। जो इन पर आसक्ति नहीं रखता, वही आत्मा की भलीभाँति उपलब्धि कर लेता है। जो आत्मा को उपलब्ध कर लेता है, उसे ज्ञान - आगम, धर्म और ब्रह्म (आत्मा) का ज्ञान हो जाता है 1
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'जो प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है', इस वाक्य का तात्पर्य है, जो साधक मतिश्रुतज्ञानजनित सद्-असद् विवेकशालिनी बुद्धि से प्राणिलोक या प्राणियों के आधारभूत लोक (क्षेत्र) को सम्यक् प्रकार से जानता है, वह मुनि कहलाता है । वृत्तिकार ने मुनि का निर्वचन इस प्रकार किया है 'जो जगत् की त्रिकालावस्था – गतिविधि का मनन करता है, जानता है; वह मुनि है। 'ज्ञानी' के अर्थ में यहाँ ' मुनि' शब्द का प्रयोग हुआ है।
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ऋजु का अर्थ है - जो पदार्थों का यथार्थस्वरूप जानने के कारण सरलात्मा है, समस्त उपाधियों से या कपट से रहित होने से सरल गति - सरल मति है ।
आवर्त स्रोत का आशय है - जो भाव आवर्त का स्त्रोत दुःखरूप संसार को यहाँ भाव-आवर्त (भंवरजाल) कहा गया है। 'संग' - विषयों के प्रति राग-द्वेष रूप सम्बन्ध, लगाव या आसक्ति ।
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उद्गम है। जन्म-जरा-मृत्यु - रोग शोकादि
इसका उद्गम स्थल है- विषयासक्तिः ।
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शीतोष्ण त्यागी का मतलब है - जो साधक शीत- परिषह और उष्ण - परिषह अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परिषह को सहन करता हुआ उनमें निहित वैषयिक सुख और पीड़ाजनक दुःख की भावना का त्याग कर देता है । अर्थात् सुख-दुःख की अनुभूति से चंचल नहीं होता है।
'अरति-रतिसहे' का तात्पर्य है - जो संयम और तप में होनेवाली अप्रीति और अरुचि को समभावपूर्वक सहता है - उन पर विजय प्राप्त करता है, वह बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित निर्ग्रन्थ साधक है।
'फारुसियं णो वेदेति' का भाव है, वह निर्ग्रन्थ साधक परिषहों और उपसर्गों को सहने में जो कठोरता - कर्कशता या पीड़ा उत्पन्न होती है, वह उस पीड़ा को पीड़ा रूप में वेदन-अनुभव नहीं करता, क्योंकि वह मानता है कि मैं तो कर्मक्षय करने के लिए उद्यत हूँ। मेरे कर्मक्षय करने में ये परिषह, उपसर्गादिं सहायक हैं। वास्तव में अहिंसादि धर्म का आचरण करते समय कई कष्ट आते हैं, लेकिन अज्ञानीजन कष्ट का वेदन (Feeling) करता है, जबकि ज्ञानीजन कष्ट को तटस्थ भाव से जानता है परन्तु उसका वेदन नहीं करता ।
'जागर' और 'वैरोपरत' ये दोनों 'वीर' के विशेषण हैं। जो साधक जागृत और वैर से उपरत है, वही वीर है - कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। वीर शब्द से उसे सम्बोधित किया गया है। 'जागर' शब्द का आशय है। असंयमरूप भावनिद्रा का त्याग करके जागने वाला ।
अप्रमत्तता
१०८. जरा-मच्चुवसोवणीते गरे सततं मूढे धम्मं णाभिजाणति ।
देखें टिप्पण पृ० ८५ - ( प्रवचपसोद्धार, द्वार १६८, गाथा १०६१)
रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् ।
जन्मावर्ते जगत् क्षिप्तं, प्रमादाद् म्राम्यते भृशम् ॥
अर्थात् - राग-द्वेष की प्रचण्ड तरंगों से घिरा हुआ, मिथ्यादर्शन के कारण दुस्तर यह जगत् जन्म-मरणादि रूप आवर्त - भंवरजाल में पड़ा है। प्रमाद उसे अत्यन्त परिभ्रमण कराता है।
- आचा० टीका पत्रांक १४०