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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध अर्थ में पांच अवग्रह - देवेन्द्र अवग्रह, राज अवग्रह, गृहपति अवग्रह, शय्यातर अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह प्रसिद्ध है।
__'मातं जाणेजा' - मात्रा को जानना - यह एक खास सूचना है। मात्रा अर्थात् भोजन का परिमाण जाने। सामान्यतः भोजन की मात्रा, खुराक, का कोई निश्चित माप नहीं हो सकता, क्योंकि इसका सम्बन्ध भूख से है। सब की भूख या खुराक समान नहीं होती, इसलिए भोजन की मात्रा भी समान नहीं है। फिर भी सर्व सामान्य अनुपातदृष्टि से भोजन की मात्रा साधु के लिए बत्तीस कवल (कौर) और साध्वी के लिए अट्ठाईस कवल प्रमाण बताई गई है। २ उससे कुछ कम ही खाना चाहिए।
मात्रा शब्द को आहार के अतिरिक्त वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों के साथ भी जोड़ना चाहिए, अर्थात् प्रत्येक ग्राह्य वस्तु की आवश्यकता को समझे व जितना आवश्यक हो उतना ही ग्रहण करे।
साधु को भिक्षाचरी करते समय तीन मानसिक दोषों की संभावना होती है - अभिमान - आहारादि उचित मात्रा में मिलने पर अपने प्रभाव, लब्धि आदि का गर्व करना। परिग्रह - आहारादि की विपुल मात्रा में उपलब्धि होती देखकर - उनके संग्रह की भावना जागना।
शोक - इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर अपने भाग्य को, या जन-समूह को, कोसना, उन पर रोष तथा आक्रोश करना एवं मन में दुःखी होना।
प्रस्तुत सूत्र में लाभो त्ति णं मज्जेज्जा - आदि पद द्वारा इन तीनों दोषों से बचने का निर्देश दिया गया है।
'परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा' - परिग्रह से स्वयं को दूर हटाए - इस वाक्य का अर्थ भावना से है। अनगार को जो निर्दोष वस्तु प्राप्त होती है, उसको भी वह अपनी न समझे, उसके प्रति अपनापन न लाये, बल्कि यह माने कि "यह वस्तु मुझे प्राप्त हुई है, वह आचार्य की है, अर्थात् संघ की है, या आचार्य के आदेश से मैं इसका स्वयं के लिए उपयोग कर सकूँगा।" इस चिन्तन से, वस्तु के प्रति ममत्व का विसर्जन एवं सामूहिकता की भावना (ट्रस्टीशिप की मनोवृत्ति) का विकास होता है और साधक स्वयं को परिग्रह से दूर रख लेता है।
'अन्यथादृष्टि' - 'अण्णहाण पासए' - का स्पष्टीकरण करते हुए चूर्णिकार ने उक्त तथ्य स्पष्ट किया है - ण मम एतं आयरियसंतगं - यह प्राप्त वस्तु मेरी नहीं, आचार्य की निश्राय की है।
अन्यथादृष्टि का दूसरा अर्थ यह भी है कि जैसे सामान्य गृहस्थ (अज्ञानी मनुष्य) वस्तु का उपयोग करता है, वैसे नहीं करे। ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही वस्तु का उपयोग करते हैं, किन्तु उनका उद्देश्य, भावना तथा विधि में बहुत बड़ा अन्तर होता है -
ज्ञानी पुरुष - आत्म-विकास एवं संयम-यात्रा के लिए, अनासक्त भावना के साथ यतना एवं विधिपूर्वक उपयोग करता है।
अज्ञानी पुरुष - पौद्गलिक सुख के लिए, आसक्तिपूर्वक असंयम तथा अविधि से वस्तु का उपयोग करता
अज्ञानी के विपरीत ज्ञानी का चिन्तन व आचरण 'अन्यथादृष्टि' है। भगवती १६ । २ तथा आचारांग सूत्र ६३५ भगवती ७।१ तथा औपपातिक सूत्र; तप अधिकार