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________________ [१६] एकाहविहितस्फीतप्रबन्धोऽयं कृतीश्वरः । कविराज इति ख्यातः श्रीपालो नाम भूमिभूः ॥ श्रीदुर्लभसरोराजे तथा रुद्रमहालये। अनिर्वाच्यरसैः काव्यैः प्रशस्तीरकरोदसौ ॥ महाप्रबन्धं चक्रे च वैरोचनपराजयम् । विहस्य सगिरन्योऽपि नैवास्य तु किमुच्यते ॥ अर्थात्-एक ही दिन में जिस प्रतिभाशाली ने उत्तम प्रबन्ध ( काव्य या नाटक ) तैयार किया है और जो 'कविराज ' के नाम से विख्यात है वह यह श्रीपाल नाम श्रीमान् (भूमिभू-ठकुर ) गृहस्थ है । इस ने दुर्लभसरोवर और रुद्रमहालय जैसे विश्रुत स्थानों की अवर्णनीय रसवाली काव्य-प्रशस्तियां की हैं । वैरोचन-पराजय नाम का एक महाप्रबन्ध भी इस कवीश्वरने बनाया है । सज्जन मनुष्यों को साधारण पुरुष भी हंसी करने लायक नहीं है तो फिर इस के बारे में तो कहना ही क्या है ? । राजा के मुख से यह सुन कर देवबोधी कुछ शमार्या और कुछ मुस्कराया । फिर एक गर्व और व्यंग पूर्ण लोक बोला कि शुक्रः कवित्वमापन्न एकाक्षिविकलोऽपि सन् । चक्षुर्द्वयविहीनस्य युक्ता ते कविराजिता ॥ राजा देवबोध महात्मा के सौजन्यपूर्ण (2) स्वभाव से परिचित हो गया और कुछ देर तक विद्वगोष्ठी तथा काव्यानन्द का रस ले अपने स्थान पर पहुंचा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003432
Book TitleDropadiswayamvaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1928
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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