________________
[१५]
मुझे देखने की पूर्ण उत्कंठा है तो यहां आ कर, सिंहासनासीन मुझको, राजा जमीन पर बैठ कर देख - मिल सकता है !!
मंत्रीने जा कर यह वृत्तान्त राजा से निवेदन किया । सिद्धराज बडा विद्याविलासी और विनयस्वभावी था । उस के दिल में, इन उद्धत वाक्यों से, अनास्था के बदले और भी अधिक उत्कंठा हो आई । अवसर पा कर सिद्धराज अपने सहोदर समान श्रीपाल को साथ में ले देवबोधी के समीप गया । विद्वानों के वृन्द से विभूषित और मृगेन्द्रसदृश दुर्धर्ष सिंहासनासीन उस कवीश्वर को भक्ति पूर्वक नमस्कार कर के राजा क्षण भर सम्मुख खडा रहा। देवबोधी कवि ने राजा का अभिनन्दन कर पास के किसी सुखासन पर बैठ जाने के लिये हाथ से इशारा किया । राजा, अपने मित्र श्रीपाल कवि का बनाया हुआ
"
इह हि वसति मेरुः शेखरो भूधराणामिह विनिहितभाराः सागराः सप्त चान्ये । इह महिपतिदम्भस्तम्भसंरम्भधीरं
9
धरणितलमिव स्थानमस्मद्विधानाम् ॥
यह पद्य बोलता हुआ, प्रतीहार द्वारा जमीन ऊपर एक साधारण आसन डलवा कर, एक किनारे बैठ गया । श्रीपाल भी, राजा के पास ही था । उसे देख कर, देवबोधी कवि ने हाथ के इसारे से पूछा कि यह पर्षदा के अनुचित ( अन्ध होने से ) कौन मनुष्य है ? । जयसिंहदेव ने उत्तर दिया कि—
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org