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________________ इच्छा एवं लालसा को ही समेटता है, जो की अनन्त है, असीम है । इच्छा के समेटने पर इच्छाओं को सीमित पदार्थ तो स्वतः ही सीमित हो जाएंगे, क्योंकि करना ही अपरिग्रह पदार्थ पहले ही ससीम है । और जब मनुष्य की ओर कदम की इच्छाएँ आवश्यकताओं के रूप में बदल बढ़ाना है । जाती है, तब पदार्थों के अधिक संग्रह का । 6 प्रश्न ही नहीं उठता । अतः इच्छाओं को सीमित करना ही अपरिग्रह की ओर कदम बढ़ाना है। मनुष्य धन-वैभव एवं पदार्थों का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकता । जैसे समुद्र में चलने वाली नौका पानी का परित्याग नहीं कर सकती । सागर को पार करने के लिए पानी का रहना आवश्यक है। उसके नीचे अनन्त जल-कण प्रवहमान रहते हैं । फिर भी उसे तब तक कोई खतरा नहीं रहता, जब तक जल का अनन्त प्रवाह उसके नीचे दबा है । परन्तु यदि जल की कुछ लहरें, पानी का थोड़ा-सा प्रवाह, उसमें भर जाए तो नौका के लिए खतरा हो जाएगा । यही स्थिति जीवन की है। भले ही, सारे संसार की संपत्ति मनुष्य के चरण चूम रही हो, परन्तु यदि उसके मन में, विचारों में, जीवन में आसक्ति का, इच्छा का, ममता-मूर्छा का प्रवाह नहीं बह रहा है, तो उसके जीवन के लिए कोई खतरा नहीं है, कोई भय नहीं है । सम्पत्ति का वह महाप्रवाह उसके अपरिग्रह की ओर बढ़ने वाले कदमों को रोक नहीं सकता । अतः धन-सम्पत्ति परिग्रह एवं पाप नहीं अपितु पाप का, परिग्रह का निमित्त बन सकती है। यथार्थ में आसक्ति ही परिग्रह है, आसक्ति ही पाप है और आसक्ति ही संसार परिभ्रमण का कारण है । भले ही, वह आसक्ति धन की हो, पदार्थों की हो, राज्य की हो, पार्टियों की हो, सम्प्रदायों की हो, 24
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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