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________________ आसक्ति पाप है धन जड़ है। वह अपने आप में न पुण्य है और न पाप । वह एकान्त रूप से परिग्रह भी नहीं है । यदि धन को ही परिग्रह का मापदण्ड मान लिया जाए तो शास्त्रों की परिग्रह सम्बन्धी परिभाषा को ही बदलना पड़ेगा । क्योंकि आगम में धन को नहीं, आसक्ति को परिग्रह कहा है । यदि एक व्यक्ति के पास न तन ढकने को पूरा वस्त्र है, न खाने को पूरा भोजन है और न शयन करने के लिए मकान ही है, परन्तु उसके मन में अनन्त इच्छाएँ चक्कर काट रही हैं, पदार्थों के प्रति आसक्ति है, समग्र विश्व पर साम्राज्य करने की अभिलाषा है, तो धन से दरिद्र होने पर भी वह परिग्रही है । इसके विपरीत आसक्ति, मूर्छा और इच्छाओं से रहित व्यक्ति के अधीन सारा संसार भी हो, तब भी वह परिग्रही नहीं है। अतः परिग्रह धन-सम्पति में नहीं, मनुष्य के मन में स्थित आसक्ति एवं ममत्व भाव में है। आगम के परिग्रह-प्रकरण में एक महत्वपूर्ण शब्द आता है । भगवान् महावीर कहते हैं कि 'आनन्द इच्छा का परिमाण करता है ।' 2 यहाँ धन के, वस्तु के परिमाण का उल्लेख नहीं किया है । वह अपनी 1. मूर्छा-छन्न-धियां सर्व-जगदेव परिग्रहः । मूर्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ।। 2. इच्छा परिमाणं करेह । - उपासकदशांग सूत्र 23
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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