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क्षण में तरंगित नहीं होता । शरीर के किसी भी अंग को जब कोई सुख-दुःख की अनुभूति होती है, कोई ठंडा या गर्म स्पर्श होता है, तो तुरन्त पूरे शरीर में बिजली की तरह स्पंदन-कंपन हो उठता है । अनुभूति की यह शक्ति संपूर्ण शरीर में प्राप्त है, इसीलिए मानना चाहिए कि मन भी हमारे संपूर्ण शरीर में परिव्याप्त है । यत्र पवनस्तत्र मनः । शरीर में जहाँ वायु है, वहाँ मन है ।
इस विचार-चिन्तन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मन समूचे शरीर में है । पर प्रश्न यहीं खत्म नहीं होता कि मन का रूप क्या है ? क्या वह कोई जड़ पुद्गल-पिंड है या चेतना पिंड है ? जैन दर्शन में मन का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । मन को जड़ पुद्गल रूप भी माना गया है और चेतन रूप भी । द्रव्य मन और भाव मन के रूप में मन के दो प्रकार है, जैन दर्शन में ।
अनुभव करने की जो क्षमता है, संवेदन शक्ति है, वह भाव मन है, वह चैतन्य रूप है। भाव मन के बिना द्रव्य मन का कोई उपयोग नहीं होता, जितनी भी अनुभूतियाँ हैं, विचार लहरें हैं, इच्छाएँ और लालसाएँ हैं, संकल्प-विकल्प हैं, वे सब भाव मन की भूमि पर ही अंकुरित होते हैं, पुष्पित और पल्लवित होते हैं। इसीलिए मन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- संकल्प-विकल्पात्मकं मनः ।
___ मन में प्रतिक्षण संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, इच्छाएँ जागती रहती है । ऐसा नहीं कि पदार्थ को देखने पर ही मन की इच्छाएँ जागती है। मन का बाहरी संसार रंग-बिरंगा, संकल्पों और लालसाओं के फूलों तथा कांटों से भरा हुआ है । मन चुपचाप तथा शांत कभी रहता ही नहीं । इच्छाएँ जागती हैं और शांत हो जाती हैं, वासनाएँ उठती हैं, और मिट जाती हैं । फिर कोई न कोई नयी इच्छा और नयी वासना नया रूप
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