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________________ मन कहाँ है : जब मन को सागर के समान बताया, तब एक प्रश्न और पैदा हो गया कि सागर को हम जब चाहे देख सकते हैं । उसके वक्षस्थल पर होने वाला लहरों का विचित्र उत्थान-पतन भी हम देख सकते हैं तो क्या मन का दर्शन भी कर सकते हैं । उसमें चलने वाली लहरों का नाटक भी हम देख सकते हैं । वह मन कहाँ है ? उसका स्वरूप क्या है ? यह सब प्रश्न हमारे सामने यक्ष प्रश्न बनकर उपस्थित हो जाते हैं । मन को समझा जा सकता है, उसकी वृत्तियों द्वारा । मन के सम्बन्ध में योग मार्ग की 6 मन अत्यंत सूक्ष्म मान्यता है कि हृदय में एक अष्टदल कमल है, उसी में मन रहता है । लेकिन आज के है। वह शरीर के किसी एक भाग में शरीर विज्ञान ने अष्टदल कमल का अस्तित्व नहीं, अपितु सर्वत्र ही स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है । कुछ आचार्यों ने मन को परमाणु स्वरूप माना व्याप्त है। है और शरीर के हृदय देश में उसका स्थान बताया है । जैन दर्शन के आचार्यों ने कहा है कि मन अत्यंत सूक्ष्म है । वह शरीर के किसी एक भाग में नहीं, अपितु सर्वत्र व्याप्त है । जिस प्रकार मक्खन दूध के कण-कण में समाया रहता है, सुगंध फूल की हर पंखुड़ी में महकती रहती है, उसी प्रकार मन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है । कंटकाकीर्ण-पथ पर नंगे पैरों चलते समय जब पैर में कांटा चुभता है तो हम तत्क्षण पीड़ा से कराह उठते हैं । मुँह से आह की आवाज निकलने लगती है, आँखों में पानी भर आता है और मस्तिष्क में झनझनाहट छा जाती है। यदि मन शरीर में कहीं एक जगह केन्द्रित होता, तो वह पाव में काँटे की चुभन से इतना जल्दी, एक ही 208
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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