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लेकर अवतरित होती है । इस प्रकार आशाओं और इच्छाओं के झूले पर मन सदा से झूलता रहा है । संकल्प-विकल्पों के चक्र में घूमता रहा है । यही मन का स्वरूप है । इच्छा परिमाण :
प्रश्न होता है कि मन में जो संकल्पों और इच्छाओं का चक्र अनादिकाल से चलता आया है । क्या वह अनन्तकाल तक ऐसा ही चलता रहेगा ? विकल्पों की धारा को निर्विकल्पता की चट्टान से क्या रोका नहीं जा सकता ? क्या लहर की तरह चंचल और विचित्र इन इच्छाओं का निरोध नहीं हो सकता ? मन में कोई संकल्प उठे ही नहीं, इच्छा जागृत ही नहीं हो, ऐसी स्थिति आ सकती है या नहीं ? शास्त्र में पूर्ण इच्छा निरोध की एक भूमिका बतलाई गई है । निर्विकल्प स्थिति की भी एक दशा है, पर वह इतनी ऊँची है कि एकदम उस भूमिका पर पहुँच पाना बहुत कठिन है । मन का निग्रह करना सहज नहीं है । गीता में कहा है
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि वलवद्धृढम् ।
तस्याह निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। मन को रोकना, वायु को रोकने जैसा दुष्कर कार्य है । हिमालय की चढ़ाई है । हिमालय की चढ़ाई प्रारंभ करने से पहले छोटी-छोटी पहाड़ियों पर चढ़ने का अभ्यास करना जैसे जरुरी होता है, उसी प्रकार निर्विकल्प अवस्था में जाने के लिए पहले विकल्पों के पृथक्करण एवं विश्लेषण की भूमिका पर खड़ा होना पड़ेगा । इच्छाओं का संपूर्ण निरोध करने से पूर्व, इच्छाओं का परिमाण करना होगा, फिर धीरे-धीरे हम उस भूमिका की ओर बढ़ सकेंगे ।
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