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महावीर ने भी उससे नहीं कहा कि अरे! तेरे पास बहुत है, तो उसमें छोड़ दे, त्याग दे । जितना - जितना त्याग होता है, |
उतना उतना
से
कुछ ही लाभ है ।
यह तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि जैनधर्म इच्छा - प्रधान धर्म है । वह साधक के दिल को प्रेरित करता है, उत्तेजित करता है, और उसमें जागृति उत्पन्न करता है । वह रोशनी पैदा करके अन्धकार को दूर कर देता है । उसके बाद साधक जितनी तैयारी कर चुका है और उसका मन जितना आगे पहुँच चुका है, वह अपने आपको खोल देता है । वह जितना ही अपने आपको खोलता है, उतना ही ऊपर उठता है । भगवान् महावीर ऐसे प्रसंगों पर यही कहा करते थे जहा सुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । अर्थात् देवों के प्यारे ! जिसमें तुम्हें सुख प्राप्त हो, वैसा करो और वैसा करने में विलम्ब भी मत करो ।
स
देवों के प्यारे !
जिसमें तुम्हें सुख प्राप्त हो, वैसा करो और वैसा करने में विलम्ब भी मत करो ।
किसी
जिस सत्कर्म के लिए तुम्हारे हृदय में प्रेरणा जगी है, उसे | झटपट कर लेना ही
उचित है ।
केकी
तुम्हारा मन गति करने को तैयार हो गया है और रसायन बनाने का समय आ गया है, तो फिर देर काहे की । फिर देर की तो सम्भव है, ऐसा कोई आदमी मिल जाए जो उस मन को बिखेरे दे और पीछे हटा दे । अतएव जिस सत्कर्म के लिए तुम्हारे हृदय में प्रेरणा जगी है, उसे झटपट कर लेना ही उचित है । लोक में भी 'शुभस्य शीघ्रम् ' वाली उक्ति प्रचलित है । यही आदर्श है, सिद्धान्त का । इस रूप में हम देखते हैं कि अपार सम्पत्ति होने पर भी
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