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की ओर बढ़ता है। श्रावक आनन्द ने अणु प्राप्त वस्तु भी साधना का पथ ग्रहण किया और उसके
परिग्रह है तथा परिग्रह-परिमाण-व्रत का जिक्र चल रहा है । जिनकी कामना की
परिग्रह की चर्चा के सिलसिले में हमें जा रही है, वे
| विचार करना है कि वास्तव में परिग्रह अपने अप्राप्त वस्तुएँ भी |
आप में क्या है ? जो वस्तु प्राप्त है, वही परिग्रह ही हैं ।
| परिग्रह होती है या जो नहीं प्राप्त है, वह भी त
परिग्रह हो सकती है ? अर्थात् मनुष्य को जो चीज मिल गई है, जो उसके नियन्त्रण या अधिकार में है, क्या उसी को परिग्रह माना जाए ? या जो चीजें मिली नहीं हैं और जो सुख के साधन संसार भर में फैले हुए हैं, उन्हें भी परिग्रह कहा जा सकता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में जैन धर्म ने और उसके अन्य साथियों ने भी कहा है कि केवल प्राप्त वस्तुओं का संग्रह ही परिग्रह नहीं है, किन्तु जो अप्राप्त हैं, यानी प्राप्त नहीं की गई हैं, पर उनके लिए तमन्नाएँ हैं, लालसाएँ हैं- वे भी परिग्रह हैं । इस प्रकार प्राप्त वस्तु भी परिग्रह है तथा जिनकी कामना की जा रही है, वे अप्राप्त वस्तुएँ भी परिग्रह ही हैं ।
सिद्धान्त के रूप में यही आदर्श है । यहाँ प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है ? जो वस्तु प्राप्त की जा चुकी है, उसके परिग्रह होने में तो कोई असंगति नहीं है । किन्तु जो मिली नहीं है या प्राप्त नहीं है, उसे परिग्रह कैसे कहा जा सकता है ? अगर अप्राप्त वस्तु को भी परिग्रह मान लिया जाता है, तो फिर श्रावक के परिग्रह त्याग का अर्थ ही क्या है ? आनन्द ने परिग्रह का त्याग किया है, तो क्या किया है ? उसके पास जो कुछ था, सब का सब उसने रख लिया है । अपनी सम्पत्ति में से कुछ भी नहीं छोड़ा है । एक कौड़ी का भी त्याग नहीं किया है । भगवान्
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