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________________ की कामना नहीं करता, यह ठाक ह, मगर इसालए वह अपारग्रही नहीं कहा जा सकता, रोटी जब तक आपके पास रहे, तब तक तो परिग्रह कहलाए और सन्त के पात्र में डालते ही अपरिग्रह हो जाए, यह क्या बात है ? सन्त ने कौन-सा जादू कर दिया कि वह परिग्रह से अपरिग्रह बन गई ? इधर यह भी नहीं माना जा सकता कि साधु परिग्रह की मर्यादा करता है । साधु तो तीन करण और तीन योग से परिग्रह का त्याग करता है, फिर मर्यादा कैसी ? मर्यादा करे, तो फिर श्रावक और साधु में अन्तर भी क्या रहे ? तो प्रश्न होता है- फिर क्या माना जाए ? क्या यह मान लिया जाए कि साधु परिग्रह का त्याग करके भी परिग्रह रखता है ? अगर ऐसा है, तो उसका दर्जा आराधक का न होकर विराधक का हो जाता है और एक तरह से वह श्रावक की अपेक्षा भी हीन कोटि में चला जाता है । फिर गृहस्थ परिग्रह का त्याग करके भी परिग्रह क्यों न रखने लगें ? इस बात का निर्णय हम भगवान् महावीर की उस पतित-पावनी वाणी के द्वारा करेंगे, जिसने आज से 2500 वर्ष पूर्व हमारे जीवन के लिए शुभ सन्देश दिया है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुच्छणं । तं पि संजम-लज्जट्टा, धारेंति परिहति य ll ण सो परिग्गहो वुत्तो, णायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ।। वस्तु होना एक चीज है और परिग्रह की वृत्ति-ममता-मूर्छा रखना दूसरी चीज है । शास्त्रकार वस्तुओं को परिग्रह इसलिए कह देते 137
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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