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है कि उन वस्तुआ पर स ममता-आसाक्त दूर हा जाए आर पारग्रह का वृत्ति या आसक्ति हटाकर ही मनुष्य हल्का बन सकता है । मूर्छा ही वस्तुतः परिग्रह है।
हमारे पुराने सन्त मक्खियों का दृष्टान्त दिया करते थे । एक मक्खी मिश्री पर बैठी है । वह उसकी मिठास का आनन्द ले रही है । परन्तु ज्यों ही हवा का झौंका आता है, वह वहाँ बैठी नहीं रहती, झटपट उड़ जाती है । पर शहद की मक्खी, चाहे कितने ही हवा के झौंके आएँ, कुछ भी हो जाए, शहद से चिपटी बैठी रहेगी । उसी में फँसी रहेगी । चाहे उसके प्राण ही क्यों न चले जाएँ, मनुष्य को भोगों में अनासक्त होना चाहिए । संसार में रहते हुए मनुष्य को पहली मक्खी की तरह बैठना चाहिए । ऐसा करने से वह तत्काल बन्धनों को तोड़ सकता है ।
मुझे एक गृहस्थ की बात याद आ रही है । वह खेतानजी कहलाता था । उसने अपनी बहुत गरीबी की हालत में, कलकत्ते में, एक दुकान खोलली । भाग्य चमका और थोड़े ही वर्षों में उसके वारे-न्यारे हो गए । खूब पैसा कमाया । एक बार उसके गाँव (जन्मभूमि) के लोग गौ-शाला के निमित्त चन्दा करने गए । गायों की हालत उस समय बहुत खराब हो रही थी। गाँव के लोगों ने गौ-शाला खोलने का विचार किया, परन्तु पैसे के बिना यह काम कैसे हो सकता था ? गाँव वाले तो सब वहीं पापड़ बेल रहे थे। उनके पास गौ-शाला बनाने के लिए पैसे कहाँ थे ? अतएव गाँव वालों ने, दिसावर में जाकर व्यापार करने वाले अपने ग्रामवासियों से रुपया लाने का निश्चय किया । वे कलकत्ते में खेतानजी के पास पहुँचे । कहा- देखिए गाँव में गायों की हालत बद से बदतर हो रही है । अतएव हमने एक गौशाला खोलने का विचार किया है। उसकी व्यवस्था आपको करनी पड़ेगी । हम लोगों में इतनी शक्ति है नहीं ।
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