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________________ संग्रह करता है, वह केवल उसी के लिए नहीं होता; बल्कि दूसरों के भी काम आता है। यह तो गृहस्थ के संग्रह किए हुए परिग्रह की बात हुई । किन्तु वह जो नवीन उपार्जन करता है, उसके लिए भी कोई मर्यादा है या नहीं? इस सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने तथा दूसरे भी आचार्यों ने कहा है न्याय-सम्पन्न-विभवः - आचार्य हेमचन्द्र न्यायोपात्त-धनः - आशाधर गृहस्थ को सम्पत्ति तो चाहिए, वैभव भी चाहिए, उसके बिना उसका जीवन नहीं चल सकता, किन्तु वह सम्पत्ति और वैभव उसे अन्याय से उपार्जन नहीं करना चाहिए । उसकी सम्पत्ति पर न्याय की छाप लगी होनी चाहिए। उसकी सम्पत्ति पर न्याय की जितनी गहरी छाप लगी होगी, उस सम्पत्ति का जहर उतना ही कम हो जाएगा । इसके विपरीत जो धन जितने अन्याय और अत्याचार से प्राप्त किया जाएगा, जो पैसा दूसरों के आँसुओं और खून से भीगा हुआ होगा, वह उस धन के जहर को बढ़ाएगा और उस धन का वह जहर अपने व दूसरों के जीवन को गलाएगा । वह पैसा जहाँ कहीं भी जाएगा, जहर ही पैदा - करेगा । संसार में घृणा, क्लेश और द्वेष की गृहस्थ जो संग्रह | आग ही जलाएगा । कषाय-भाव को संसार करता है, वह केवल की आग कहा है । उसी के लिए नहीं इस रूप में हम समझते हैं कि हमारे होता; बल्कि दूसरों आचार्यों ने सुन्दर विश्लेषण किया है । वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही यथार्थवादी भी । उन्होंने यह स्वप्न नहीं देखा कि गृहस्थ 6 गृहस्थी में तो रहे, खाने-पीने में तो रहे, 129 आता है।
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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