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________________ परन्तु आवश्यक चीजें प्रदान न करें । तो जैन धर्म ऐसी ख्याली दुनियाँ में नहीं रहा, क्योंकि ख्याली दुनियाँ में रहने वाले कभी जीवन की ऊँचाई को प्राप्त नहीं कर सकते । उसे व्यवहारिक होना आवश्यक है। जब तक जीवन है, जीवन के मैदान में दौड़ना पड़ता है, तैयारी करनी पड़ती है और संघर्ष करने पड़ते हैं, तो इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि उस संघर्ष और दौड़ में से विवेक न निकल जाए, न्याय न निकल जाए और विचार न निकल जाए । जीवन का संघर्ष अज्ञान के अन्धकार में न किया जाए । गृहस्थ को यह न भूल जाना चाहिए कि मैंने किस तरीके से पैसा पैदा किया है ? मेरे पास अन्याय और अत्याचार का तो कोई पैसा नहीं आ रहा है ? रोटी तो साधु को भी चाहिए । जब तक पेट है, तब तक रोटी की तो आवश्यकता है ही, जीवन की अपरिहार्य आवश्यकता है। मगर यहाँ भी यही प्रश्न उपस्थित होता है कस्सट्टा केण वा कडं ! - दशवैकालिक सूत्र, अ. 5 अर्थात्- यह खाद्य-सामग्री कैसे तैयार की गई है, किसके लिए तैयार की गई और कितनी तैयारी की गई है और इसमें हमारा संकल्प और उद्देश्य तो नहीं है ? यह आहार, गृहस्थ ने सहज भाव से अपने लिए बनाया है या दूसरों के लिए बनाया है ? साधु गृहस्थ से पूछ कर यह मालूम कर ले और गृहस्थ न बतलावे तो वातावरण से या दूसरे किसी उपाय से जान ले। इतने पर भी यदि उसे सन्देह रह जाए और विश्वास न हो कि यह सहज भाव से नहीं बनाया गया है, तो साधु उस आहार को ग्रहण न करे । इस प्रकार साधु को भी उद्गम और ‘उत्पादन' का विचार करना पड़ता है । 130
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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