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________________ है और इस कारण वह भी अपने ढंग से समाज का उपकार करता है । साधु भी समाज में रहता है । पानी, पानी ही है; चाहे वह नदी में हो, कुंए में हो, या घड़े में भर लिया गया हो, वह प्यास बुझाएगा ही । इसी प्रकार अहिंसा चाहे साधु की हो, चाहे श्रावक की हो, वह तो संवर रूप ही है और मोक्ष का ही मार्ग है । इस दृष्टि से साधु और श्रावक का मार्ग परस्पर विरोधी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टिकोण का अर्थ यह हुआ कि गृहस्थ के पास जितना परिग्रह है, वह परिग्रह ही है और उसके अतिरिक्त परिग्रह का त्याग जो उसने किया है, वह अपरिग्रह है। जहाँ तक उसका संसार से सम्पर्क है, वहाँ तक हिंसा है और जितनी हिंसा का उसने त्याग किया है, वह अहिंसा है । इस प्रकार गृहस्थ के परिग्रह और अपरिग्रह की सीमाएँ हैं । गृहस्थ जब तक संसार-व्यवहार कर रहा है और गृहस्थी में रह रहा है, तब तक वह परिग्रह से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । वह भिक्षा मांगकर, साधु की तरह तो अपना निर्वाह नहीं कर सकता । भिक्षा मांग कर अपना जीवन चलाना गृहस्थ के लिए अच्छा नहीं समझा गया है । किसी महान् उच्च साधना में निरत श्रावक इसका अपवाद हो सकता है परन्तु साधारण गृहस्थ तो भिक्षा पर अपना निर्वाह नहीं कर सकता । अतएव गृहस्थ के लिए यही आवश्यक समझा गया है कि वह अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन करे और अपने जीवन को अपने आप चलाए । वह अपना भी भरण-पोषण करे और परिवार तथा समाज का भी । उसमें दूसरों को देने के भाव भी होने चाहिए और शनैः-शनैः इस प्रकार के जितने अधिक भाव उसमें जागते जाएंगे, उसका जीवन उतना ही विशाल और विराट् बनता जाएगा । इस रूप में गृहस्थ जो 128
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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