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________________ पुनः साधना करता है और उसमें पूर्णता प्राप्त कर लेता है, तब मोक्ष पा लेता है। यह बात तो साधु के विषय में भी है । यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक साधु एक ही जीवन में अपनी साधना की पूर्णता पर पहुँच जाए और मुक्ति प्राप्त कर ले । बल्कि, आज के जमाने में तो कोई भी साधु इसी भव से मोक्ष नहीं पा सकता । उसे भी स्वर्ग में जाना पड़ता है । तब क्या श्रावक की तरह आज के साधुओं का मार्ग भी अलग मानना पड़ेगा ? आशय यह है कि जहाँ तक अहिंसा और सत्य आदि का सवाल है, अलग-अलग नहीं है, किन्तु जीवन के व्यवहार अलग-अलग हैं; और उन्हीं जीवन के व्यवहारों को लेकर हम साधु और श्रावक का भेद करते हैं और इस रूप में साधु का जीवन अलग है तथा गृहस्थ का जीवन अलग है। यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देनी है, वह है कि मेरे इस विवेचन का अर्थ यह न निकाला जाए कि गृहस्थ और साधु की अहिंसा और सत्य एक ही हैं- उनके उत्तरादयित्व भी एक ही हैं । स्पष्ट किया जा चुका है कि दोनों में जहाँ अभेद है, वहाँ दोंनों श्रेणियों में भेद भी है । इस कारण गृहस्थ पर अपने परिवार, समाज और देश के रक्षण और पालन-पोषण का उत्तरदायित्व है, गृहस्थ उससे बच नहीं सकता, और उसे बचना चाहिए भी नहीं । वह यह कहकर छुटकारा नहीं पा सकता कि साधु देश और समाज की कोई व्यवहारिक सेवा नहीं करते, तो हमें भी उसकी क्या आवश्यकता है । साधु समाज और देश से अपना सम्बन्ध विच्छेद करके एक विशिष्ट जीवन में प्रवेश करता है, परन्तु गृहस्थ ऐसा नहीं करता । यद्यपि साधु का भी किसी सीमा तक समाज के साथ सम्बन्ध रहता 127
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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