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________________ अत्यन्त अमंगल की बात है । यह मनुष्य के पतन की पराकाष्ठा है । यही संघर्षों और विद्रोहों की जड़ है । जब तक मनुष्य परिग्रह के पाप को फिर से पाप न समझ ले और भगवान महावीर की वाणी को स्वीकार न कर ले, तब तक उसका निस्तार नहीं है, कल्याण नहीं है, त्राण नहीं है, तब तक उसकी अशान्ति का अन्त नहीं है । पाप को पुण्य मानकर संसार कभी सुख-शान्ति के दर्शन नहीं कर सकता । हाँ, तो मैं कह रहा था कि मिलने वाले लोग बड़े अभिमान के साथ यह बतलाते हैं कि मेरी अमुक-अमुक चीज की दुकानें है । ये अनेक दुकानों के मालिक जब स्थानीय बाजार पर अधिकार कर लेते हैं, तब फिर बाहर के बाजारों की ओर उनकी निगाह जाती है और बम्बई तथा कलकत्ता में अपनी फर्मे खोलते हैं । जब एक-एक आदमी इतना लम्बा रूप लेकर चलता है, तो शोषण की वृत्ति भी बढ़ती जाती है । इस शोषण वृत्ति को रोकने के लिए भगवान् महावीर का दिया परिमाण व्रत है। तुम अपने व्यापार को कहाँ तक फैलाना चाहते हो और व्यापार के लिए कहाँ तक दौड़-धूप करना चाहते हो, इसका परिमाण कर लो। इस रूप में किसी ने पाँच-सौ या एक हजार योजन का परिमाण किया तो प्रश्न हुआ- क्या परिमाण करने वाला उसके आगे जा सकता है या नहीं ? कल्पना कीजिए, एक आदमी अपने परिमाण की अन्तिम सीमा तक चला गया और सीमा के अन्तिम छोर पर जाकर वह रुक गया । मगर वहाँ पहुँच कर वह देखता है कि उससे दस कदम आगे किसी बहिन या माता की इज्जत लुट रही है । तो, प्रश्न होता है कि वह उस माँ या 111
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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