SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में, इस प्रकार प्रत्येक अवसर पर परिग्रह के पापियों की ही प्रतिष्ठा होती देखी जाती है। और घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि जो जितना बड़ा परिग्रह-पापी है, वह उतना ही अधिक पुण्यशाली समझ लिया जाता है । हमारा अपरिग्रही निर्ग्रन्थ वर्ग भी ऐसे लोगों से प्रभावित और अभिभूत हो जाता है । मैंने सुना है, अपने व्याख्यानों में वह उनका यशोगान करने में भी संकोच नहीं करता है । भरे व्याख्यान में, उन्हें पुण्यात्मा कहा जाता है । I जब त्यागीवर्ग परिग्रह के पाप को पुण्य के सिंहासन पर आसीन कर दे, तब फिर दुनियाँ में उलट-पलट क्यों न होगी ? लोग परिग्रह की आराधना क्यों न करेंगे ? समाज भी और त्यागीवर्ग भी जिस पाप को प्रशंसनीय समझ ले, उस पाप का सर्वत्र आदर क्यों न होगा ? उस पाप की वृद्धि क्यों न होगी ? उस पाप का आचारण करके लोग क्यों न गौरव का अनुभव करेंगे ? I परिग्रह को पाप की कोटि में से निकाल दिया गया है, तभी तो आज भगवान् महावीर की वाणी और सारे शास्त्र नारों के रूप में रह गए हैं । ऐसा जान पड़ता है कि कहने भर के लिए पाँच पाप रह गए हैं, परन्तु व्यवहार में चार ही पाप माने जाते हैं । परिग्रह पाप नहीं रहा । धन के गुलामों ने उसे पुण्य के आवरण से ढँक दिया है । यही तो परिग्रह की महिमा है । मैं समझता हूँ कि इस प्रकार पाप को पुण्य समझना मानव जाति के लिए 110 केसी पाप को पुण्य समझना मानव जाति के लिए अत्यन्त अमंगल की बात है । किसी
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy