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________________ उसे गतिविधि चाहिए । इस तरह वह एक आदमी ही एक दिन सारे बाजार पर कब्जा पैसा निठल्ला नहीं कर लेता है । धन-कुबेर बन जाता है । । बैठ सकता, उसे भी अब तक मुझे ऐसे कई आदमी | मिले हैं, जिन्होंने मुझसे कहा है कि उनके | यहाँ अमुक-अमुक तरह की दुकानें हैं । मैं सब की सुना करता हूँ। वे समझते हैं कि हम अपना गौरव प्रदर्शित कर रहे हैं और मैं सोचता हूँ कि इन्होंने सारे बाजार पर कब्जा कर लिया है, तो दूसरों को कमाने की जगह रहेगी या नहीं ? लेकिन मनुष्य परिग्रह की वृद्धि में ही अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं । हिंसक हिंसा करके शर्मिन्दा होता है, झूठ बोलने वाले को झूठा कह दिया जाए तो वह अपना अपमान समझता है और इससे पता चलता है कि वह स्वयं झूठ को निन्दनीय मानता है । चोर चोरी करके अपने को गुनहगार समझता है और अपने आपको छिपाता है, कम-से-कम चोरी करने का ढिंढोरा तो नहीं पीटता । व्यभिचारी आदमी व्यभिचार करता है, तो लुक-छिपकर करता है और अपने लिए कलंक की बात समझता है। इन पापों का आचरण करने वाले अपने पाप का बखान नहीं करते, किन्तु परिग्रह का पापी अपने आप को पापी नहीं समझता और उस पाप के लिए लज्जित भी नहीं होता । यही नहीं, इस पाप का आचरण करने में आज गौरव समझा जाता है और बड़े अभिमान के साथ इस पाप का बखान किया जाता है । ज्ञात होता है कि समाज ने भी इस पाप को पाप नहीं मान रखा है और यही कारण है कि आज के समाज में परिग्रह के पाप की बड़ी प्रतिष्ठा देखी जा रही है। देश में, समाज में, जात-बिरादरी में, विवाह-शादी के अवसर पर, सार्वजनिक संस्थाओं के जलसों-उत्सवों 109
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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