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पुत्र को सुख मिल सकेगा, न तुम को ही सुख प्राप्त हो सकेगा । अतएव हे राजन् ! पहले पुत्र के लिए चिन्ता न करो, पितृ-हृदय पाने के लिए चिन्ता करो।
राजा ने कहा- महाराज ! पुत्र के अभाव में कोई पिता नहीं होता और जब तक पिता नहीं है, तब तक पिता का हृदय वह कहाँ से लाए ? आपकी कृपा हो जाए तो मैं पिता का हृदय भी प्राप्त कर लूँ । पुत्र के होने पर ही तो पिता का हृदय पाया जा सकता है ।।
तब सन्त ने सहज मधुर स्वर में राजा से पूछा- यह समस्त प्रजा तुम्हारी सन्तान है या नहीं ? जब से तुम सिंहासन पर बैठे हो, प्रजा के माँ-बाप कहलाते आ रहे हो और उसमें गौरव तथा आनन्द मानते रहे हो, फिर भी प्रजा के प्रति तुम्हारे अन्तःकरण में सन्तान का भाव न पैदा हुआ, तो अब और सन्तान पाकर क्या करोगे ? पा भी लोगे, तो उसके प्रति पुत्र-भाव कैसे उत्पन्न कर सकोगे ? अतएव पहले हृदय में पिता का भाव पैदा करो । तब मैं तुमको बना-बनाया पुत्र दे दूँगा । वह तुम्हारा नाम रोशन करेगा।
इसके पश्चात् उस दार्शनिक सन्त ने कहा- सारे नगर में घोषणा करवा दो कि कल भिखारियों को दान दिया जाएगा और उनकी इच्छा-पूर्ति की जाएगी।
उस सन्त की इस आज्ञा के सम्मुख राजा ने अपना शीश झुका दिया । सन्त की बात को स्वीकार किया ।
उसी दिन नगर भर में ढिंढोरा पिट गया । भिखारी तो भिखारी ही ठहरे । जब सुना कि कल राजा दान देगा, तो फूले न समाए ।
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