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चारों ओर दीवारें खड़ी कर लेने पर ही वह आगे बढ़ सकेगा। यही हैइच्छाओं का परिमाण ।
एक राजा और एक मन्त्री था, और दोनों ही पुत्रहीन । जब राजा और मन्त्री अकेले बैठते, तब घर-गृहस्थी की बातें चल पड़ती । तब राजा कहता- देखो, हम दोनों ही के घरों में अंधेरा है । पुत्र-हीन घर, घर नहीं होता । आखिर, राजा और मन्त्री ने देवी-देवताओं की मनौती की । इधर-उधर दौड़ धूप की, मगर कोई नतीजा न निकला ।
जिस नगर में राजा रहता था, उस नगर में एक सन्त आए । सन्त बड़े ज्ञानी और विचारवान् थे। उनकी वाणी का असर जनता पर पड़ा और हजारों लोग उनके चरणों में झुकने लगे । राजा ने भी सुना कि उसके नगर में किसी पहुँचे हुए संत का आगमन हुआ है, तो उसने मन्त्री से कहा- अगर वह सन्तान प्राप्ति का कोई उपाय बतला दें, तो हमारे सभी मनोरथ पूरे हो जाएँ । मन्त्री की भी यह अभिलाषा थी ।
दोनों एक दिन सन्त के पास पहुँचे । राजा ने सन्त से निवेदन किया- आपके अनुग्रह से हमारे यहाँ किसी चीज की कमी नहीं है; किन्तु पुत्र का अभाव हृदय में खटक रहा है, और इस कारण संसार का सारा वैभव भी हमें आनन्द नहीं दे रहा है । पुत्र के अभाव में हृदय में भी अँधेरा है, घर में भी अँधेरा है और राज्य में भी अँधेरा है । आपकी दया हो जाए और पुत्र का मुँह देख सकूँ, तो मेरा जीवन आनन्दमय हो जाय । मेरे मन्त्री की भी यही स्थिति है । दीनानाथ ! हम आपकी दया के भिक्षुक बनकर आपके चरणों में उपस्थित हैं ।
सन्त ने कहा- पुत्र चाहिए, तो पहले पिता का हृदय पा लो । पिता का हृदय न मिला और पुत्र मिल गया, तो क्या लाभ होगा ? न
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