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एक-एक कर कितनी स्मृतियाँ मन-प्राणों में लहरातीं, किंकर्तव्य-विमूढ़, भ्रमित को बोध - विचिन्तन दे जाती, गूंजी कभी इसी उपवन में जगतारक प्रभु की वाणीसतत ज्वलित पौरूष के मग में नियति नहीं बाधा लाती । वर्तमान के गेह पधारे जब अतीत बनकर पाहुन, शिशु मराल तब क्यों न विवेकी हों अनुभव के मोती चुन ? दूर-दूर के आतुर प्राणी भव-रूज यहाँ मिटा जाते, चर्म-चक्षु की चर्चा ओछी, ज्ञान-चक्षु वे अपनाते, समवसरण की पुण्य भूमि में मिटता उनका दारुण दुखममता से भीगा सावन वे यहाँ जेठ में भी पाते । क्षण भर बैठ यहाँ ढूंढो कवि, अपने भाव-रत्न खोए, रहे अपरिचित तुम परिचित से, सदा अपरिचित ढिग रोए । मोह-धुलि-धुसर प्राणों को तुम चिन्तन जल से धो लो, ब्राह्मी कला-तीर्थ में आकर निर्विकार बोली बोलो, जिनवर का चारित्र्य-वृत्त है दृग सम्मुख प्रेरक, पावनचिर गति बनी श्रमण संस्कृति यह तुम भी समुद साथ हो लो । उपदेशक गुरुदेव, देशना यहाँ रात-दिन है चलती, होते जो जिज्ञासु उन्हें ही गूढ़ ज्ञान की निधि मिलती । कर में त्याग, ज्ञान अन्तर में मुख में जन-कल्याण वचन, राष्ट्रसंत जय ! कुलपति जय-जय ! जय सेवा-अर्पित जीवन ! संस्कृति, प्रकृति, विकृति तीनों का भेद यहीं आकर खुलताकलित कौमुदी अमरचन्द्र की करती उदासित कण-कण । है युग-पूज्य शास्ता ये ही, अग-जग इनका दास बना, वाणी इन की अमर-भारत, चरित, मंजुल इतिहास बना ।
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