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नौवाँ अध्याय ३२-दु:ख आ पड़ने पर उसके दूर करने की सतत चिन्ता दूसरा आर्तध्यान है।
३३—प्रिय वस्तु के वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता, तीसरा आर्तध्यान है।
३४–प्राप्त न हुई वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्प (मन में सतत चिन्ता) करना या निदान करना, चौथा आर्तध्यान है।
३५---वह आर्तध्यान, अविरल, देशविरत और प्रमत्तसंयत इन गुणस्थानों में ही सम्भव है।
३६—हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता, रौद्रध्यान है। वह अविरत और देशविरत गुण स्थानों में सम्भव है।
३७-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान की विचारणा के निमित्त मनोवृत्ति का एकाग्र करना, धर्मध्यान है। यह अप्रमत्त संयत के हो सकता है।
___ ३८—वह धर्मध्यान उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में भी सम्भव है।
३९---उपशान्तमोह और क्षीणमोह में पहले के दो शुक्ल ध्यान सम्भव हैं। पहले के दोनों शुक्लध्यान पूर्वधर मुनि के होते हैं।
४०–अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली के होते हैं।
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