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छठा अध्याय
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२३-सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतो में अत्यन्त अप्रमाद, ज्ञान में सतत उपयोग, तथा सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग और तप, संघ और साधु की समाधि और वैयावृत्य करना, अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत तथा प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यक क्रिया का न छोड़ना, मोक्षमार्ग की भावना और प्रवचनवात्सल्य; ये सब तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध-हेतु हैं।
२४-परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन = गोपन और असद्गुणों का प्रकाशन; ये नीचगोत्र के बन्धहेतु हैं।
२५-उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणों का प्रकाशन, असद्गुणों का गोपन तथा नम्रवृत्ति और नरभिमानता-ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु हैं।
२६-दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का बन्धहेतु है।
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