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पहला अध्याय
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१६ – बहु = अनेक, बहुविध अनेक तरह, क्षिप्र जल्दी, अनिश्रित = हेतु द्वारा असिद्ध, अनुक्त बिना कहे जानना, ध्रुव = निश्चित, तथा इनके विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र = निश्रित, उक्त और अध्रुव इस तरह अवग्रहादि रूप मतिज्ञान होता है।
१७ – अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा — ये चारों मतिज्ञान अर्थवस्तु को ग्रहण करते हैं।
१८- व्यंजन- -अप्रकटरूप (अव्यक्त), पदार्थ का केवल अवग्रह ही होता है। [ईहादिक अन्य तीन नहीं होते । ] १९ - वह अप्रकटररूप (अव्यक्त), पदार्थों का अवग्रह नेत्र और मन से नहीं होता । [ मात्र शेष चार इन्द्रियों से ही होता है ।]
२० - श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसके अङ्गबाह्य और अंगप्रविष्ट ये दो मुख्य भेद हैं। उसमें पहिला अनेक भेद वाला तथा दूसरा बारह भेद वाला है।
२१ - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय - क्षयोपशमजन्य के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है।
२२- भवप्रत्यय - अवधिज्ञान नारकों और देवताओं को होता है।
२३ – गर्भ से उत्पन्न हुए मनुष्यों ओर तिर्यंचों को क्षयोपशमजन्य अवधिज्ञान होता है और वह अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान अवस्थित ओर अनवस्थित के भेद से छह प्रकार का है।
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