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________________ ८६ / सत्य दर्शन हैं, किन्तु उस परिवार के भविष्य के सम्बन्ध में कोई कल्पना नहीं करते । छोटे-छोटे बच्चे, परिवार के नौनिहालं और समाज के चमकते हुए रत्न जो धूल में मिल रहे हैं, उनकी ओर आपका ध्यान नहीं जाता। उनकी शिक्षा-दीक्षा कैसी चल रही है, आप सारी जिन्दगी तक नहीं पूछते हैं । तो फिर रोने का और उन्हें सान्त्वना देने का क्या अर्थ है ? अगर आप उन रोने वालों के सहायक नहीं बनते, उनके भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए कोई काम नहीं करते, तो आपकी सहानुभूति और समवेदना का क्या मूल्य है ? धर्म का आदेश तो यह है कि अगर कोई रोने वाला है, तो दृढ़धर्मी बन कर उसके साथ रहो और उसके पारिवारिक जीवन की समस्याओं में रस लो, केवल रोने में ही रस मत लो। ___ तो यह जो परम्पराएँ चल रही हैं, उनके सम्बन्ध में कई भाई कहते हैं कि एक मजबूत आन्दोलन उठाया जाए। यदि आप रोने को अच्छा समझते हो, उस रोने को धर्म-ध्यान या शुक्ल-ध्यान कहते हो, आपकी समझ में वह मोक्ष का मार्ग है और पतन का मार्ग नहीं है, तो आप और हम शास्त्रों को सामने रखकर विचार करें । इसके विपरीत यदि आपका विश्वास है कि यह रोना गलत चीज है और ठीक नहीं है, तो मैं कहना चाहता हूँ कि इसके साथ 'पर' मत लगाइए । 'पर, हम क्या करें'-यह मत कहिए। यह तो साधारण-सी चीज है और इसे अनायास ही हटाया जा सकता है। आप जहाँ कहीं मातमपुर्सी करने जाएँ, सद्भावना लेकर ही जाएँ और उस सद्भावना के अनुसार व्यवहार भी करें तभी आपकी मातमपुर्सी का कुछ मोल आँका जाएगा। सती प्रथा का विरोध : प्राचीनकाल में भारतवर्ष में, मरने वाले के पीछे स्त्रियाँ मर जाती थीं। किन्तु भगवान् महावीर ने इस वृत्ति और प्रवृत्ति का प्रभावशाली तरीके से विरोध किया था। उन्होंने इस प्रकार के मरण को अज्ञान-मरण' और 'बाल-मरण' कहकर पुकारा था। मेरा पति मर गया है, तो मैं भी मर जाऊँ और उसके पास पहुँच जाऊँ। इस भावना से मरना अज्ञानी का मरना है और यह नरक. निगोद का रास्ता है। इस प्रकार मरने वालों को स्वर्ग और मोक्ष नहीं मिलता। जो मर गया है, तुम्हें मालूम हैं कि मर कर कहाँ गया है? और फिर वहीं पहुँच जाना और उससे मिल जाना, क्या तुम्हारे हाथ की बात है ? फिर भी समझा जाता है कि हम मर कर उससे मिल जाएँगे। मृतात्मा अगर नरक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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