SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य दर्शन/८७ जाकर नास्क बन गया है या कीड़ा-मकोड़ा हो गया है, तो क्या तुम भी इसी रूप मे जन्म लेकर उससे मिल जाओगे? लेकिन उस समय की साधारण जनता में ऐसे ही भ्रमपूर्ण विचार फैले थे। भगवान महावीर ने उनकी आँखें खोली थीं और उनके भ्रम को भंग किया था। - इसका अभिप्राय यह नहीं कि उस जमाने में सभी की यही धारणा थी। नहीं, तब भी विवेकशील नर-नारियों का अभाव नहीं था। उस समय भी लोग थे और किसी प्रियजन के मरने पर उनके अन्तःकरण में कर्त्तव्य की भावना जागृत होती थी और वे अपने उसी कर्तव्य में जुट जाते थे, जीवन के परम सत्य की उपलब्धि के लिए तत्पर हो जाते थे। आज ऐसे ही विवेक-शील व्यक्ति हमारे लिए आदर्श होने चाहिए। हमारे मन में जीवन के प्रति उच्च श्रेणी का विवेक जागृत होना चाहिए। एक सन्त हुए हैं-आनन्दघन । मैंने उनके जीवन की एक कहानी पढ़ी थी उसका आशय इस प्रकार है एक बहुत बड़े सेठ का लड़का था। वह मर गया, तो उस समय की परम्परा के अनुसार उसकी पत्नी, पति के पीछे सती होने के लिए चलने लगी। जब श्मशान-भूमि में चिता रखी जा रही थी और स्त्री उसमें जलने को तैयार थी कि उसी समय सन्त आनन्दघन अचानक उधर से निकले। उन्होंने निकट आकर पूछा-यह क्या हो रहा उत्तर मिला-अमुक सेठ के लड़के का देहान्त हो गया है और उसकी यह पत्नी सती हो रही है। यह सुनकर सन्त के हृदय में करुणा का प्रबल स्रोत उमड़ पड़ा। उन्होंने सोचा-एक आत्मा तो चली गई. किन्तु उसके पीछे दूसरी की मृत्यु हो रही है। यह परिवार, समाज और राष्ट्र के कलंक की बात है कि गलत मान्यता के कारण एक होनहार व्यक्ति को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ रही है। जो मर गया, उसका तो विरोध नहीं किया जा सकता ; किन्तु जो मर रहा है, उसका अवश्य विरोध किया जा सकता है और उसे बचाने का प्रयत्न भी किया जा सकता है। इस प्रकार विचार कर उन्होंने उस स्त्री से कहा-बहिन, तुम क्यों मर रही हो? मृतात्मा को तुमने मारा नहीं है, यही नहीं, वरन् उसे बचाने का ही प्रयास किया है, फिर तुम्हारे मरने का क्या कारण है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy