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________________ सत्य दर्शन/८५ मुझे आपके पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में कोई सीधी जानकारी नहीं है किन्तु थोड़ी-सी जानकारी मिली कि इधर आपके राजस्थान प्रान्त में जब किसी परिवार में मृत्यु हो जाती है, तो उस परिवार के लोग, और उनमें भी विशेषतया स्त्रियाँ-बहुत दिनों तक रोती हैं। दूसरे स्नेही-जन भी जाकर उनके रोने में सहायक बनते हैं । भला सोचिए तो सही कि जो परिवार अपने आपको सान्त्वना नहीं दे सकता और जिसे आपकी सान्त्वना की आवश्यकता है, उसके रोने में आप सहायक बनें, उसे और अधिक रुलाएँ, यह कहाँ तक उचित है ? ऐसे अवसर पर मृतात्मा के परिवार की सार-सँभाल की जानी चाहिए, उसे तसल्ली बँधाना चाहिए और दर्शनशास्त्र की बातें करनी चाहिएँ कि आत्मा तो अजर-अमर है, संसार सराय है। जो पैथिक आया है, वह जाने को ही है। संयोग का निश्चित परिणाम वियोग ही है। किन्तु इस प्रकार की बातें न करके महीनों तक रोना और रुलाना किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है। बहिनो ! यह बातें चल रही हैं, तो क्या ठीक हैं ? जैनधर्म पूछना चाहता है कि मरने वाला जब चला जाता है और किसी भी उपाय से वह लौट नहीं सकता, तो उसके लिए निरन्तर शोक और रंज को बढ़ाना और हा-हाकार में समय को गुजारना और आर्तध्यान करके अपने बन्धनों को और अधिक मजबूत करना ; धर्म का मार्ग है अथवा अधर्म का मार्ग है ? ऐसा करने से आपके बन्धन क्या ढीले पड़ते हैं ? क्या मृतात्मा को कोई लाभ पहुँच सकता है ? भगवान महावीर का आदेश है कि जहाँ-जहाँ आर्तध्यान है, जहाँ-जहाँ रुदन, क्रंदन, शोक और संताप है, वहाँ कर्म-बन्धन है। जो ऐसा करते हैं, वे कर्मों का बन्धन करते हैं, अपने-आपको गिरा रहे हैं । और जो वहाँ जाकर रोने में निमित्त बनते हैं, शोक-संताप को बढ़ाने वाली बातें करते हैं, वे भी कर्म बन्धन करते हैं। हमें विचार करना है कि जैन-धर्म जैसा धर्म क्या आर्तध्यान और रौद्र-ध्यान करने को कहने के लिए आया है ? यह पारिवारिक जीवन नहीं, यह सान्त्वना का मार्ग नहीं है, यह तो परिवार को नीचे गिराने का मार्ग है। यदि योग्यता हैं, तो उसको लेकर दुखियों के दरवाजे पर जाओ। रोते को और रूलाया तो क्या विशेषता हुई ? रोते के आँसू पोंछो, उसे सान्त्वना दो। यह क्या बात है कि एक महीने तक रोते रहे और रूलाते रहे? पर आपकी तो समझ जोरदार है रोने में और एक महीने तक रोते रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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