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________________ ८४ / सत्य दर्शन 'पर' लगा देने का अर्थ यह होता है कि हम कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं। उस सत्य के लिए अन्तःकरण में जो जागृति होनी चाहिए, वह नहीं हुई है और सत्य को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। कदाचित् स्वीकार किया भी जा रहा है, तो इस रूप में कि जीवन में उस सत्य का कोई मूल्य नहीं है। यानी ऐसे बच्चे को पैदा किया गया है कि जिसे स्वयं जन्म देकर स्वयं ही तत्काल उसका गला घोंट दिया गया है। इस रूप मेंजब आदमी कहता है कि बात तो सही है, ठीक है, किन्तु क्या किया जाए ? तो इसका अर्थ यह हुआ कि सत्य को जन्म देकर तत्काल ही उसका गला घोंट दिया गया है ! इसी दुर्बलता का परिणाम है कि जो सामाजिक क्रान्तियाँ आनी चाहिए, वे नहीं आ रही हैं। समाज में गलत मान्यताओं का एक प्रकार से घुन-सा लग गया है। समाज भीतर से खोखला होता जा रहा है और इस प्रकार सत्य का अपमान हो रहा है। हम शास्त्र की ऊँची-ऊँची बातें करते हैं और कोई जगह नहीं, जहाँ ऐसी बातें न करते हों, गाँव के लोग मिलते हैं, जिन्हें साफ-सुथरा रहने और बोलने की कला नहीं आती है, जो जीवन के ऊँचे ध्येय की कल्पना भी नहीं कर सकते, वे भी आपस में परमात्मा और मोक्ष-सम्बन्धी ऊँची-ऊँची बातें किया करते हैं और ऐसा मालूम पड़ता है कि जिन्हें जो समाज या परिवार मिला है, उसमें रहने में उन्हें रस नहीं है- प्रीति नहीं है और वे दूसरी जगह की तैयारी कर रहे हैं। किन्तु दुर्भाग्य से वहाँ की तो क्या, यहाँ की भी उनकी तैयारी नहीं हैं। वे इन्सान के रूप में सोचने की उतनी तैयारी नहीं करते हैं, जितना कि परब्रह्म के रूप में सोचने को तैयार होते हैं। इस रूप में हम समझते हैं कि भारत के मन में एक चीज आ गई है। वह यह है कि जो जीवन भारतीयों को मिला है, वह उन्हें पसन्द नहीं है और जो जीवन उनकी कल्पना में ही नहीं है, वहाँ दौड़ने की वे कोशिश करते हैं। ये तो वही विद्यार्थी हैं कि जो विषय उन्होंने ले लिया है, उसमें उनकी रुचि नहीं है और दूसरे विषय में रस लेनें दौड़ते हैं । जब जीवन की ऐसी व्यवस्थाएँ चलती हैं, तो लोग समाज का क्या चिन्तन लेकर आएँगे ? ऐसा समाज सड़ने को है, डट कर लड़ने को नहीं है ? यह समझना भ्रमपूर्ण होगा कि यह बातें हमारे ही देश में चलती हैं और विदेशों में नहीं । मनुष्य की प्रकृति प्राय: समान होती है और न्यूनाधिक रूप में सभी देशों की स्थिति, खास तौर पर मानसिक चिन्तन-सम्बन्धी समान ही हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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