SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य दर्शन/८३ 'सत्य को झुका दिया जाए, तो सत्य के लिए नहीं रहा। उस सत्य की अपने-आप में कोई सत्ता नहीं रही, वह तो लोगों की मान्यताओं और ऊलजलूल धारणाओं का अनुकरमात्र रह गया। उसे वास्तविक सत्य के सिंहासन पर किस प्रकार बिठलाया जा सकता है ? जब हम एक बार अपने जीवन में अहिंसा और सत्य के साथ समझौते कर लेते हैं, तो समझौते का क्रम चल पड़ता है। हम हर जगह दब कर, खिंचकर समझौता करते चलते हैं, हम सत्य की राह पर चलने के बदले सत्य को अपनी राह पर चलाते हुए चलते हैं और सत्य बोलते हैं, तो केवल वाणी का खेल खेलते हैं, मन का खेल नहीं खेलते। हमारी ऊँची-ऊँची मान्यताएँ नीचे झुक जाती हैं और झुकती ही चली जाती हैं। किन्तु सत्य, जब सत्य के लिए ही होता है, तो सत्य का उपासक संसार से प्रभावित नहीं होता। उस सत्य का तेज इतना प्रखर होता है कि वह संसार को प्रभावित कर लेता है। आज परिवार में, समाज में और संसार में गलत मान्यताएँ और बातें होती है, लोग चर्चा करते हैं कि गलत परम्पराएँ चल रही हैं। लोग खिन्न होते हैं और वेदना का अनुभव करते हैं । जब उनसे कहा जाता है कि आप उनका विरोध क्यों नहीं करते? तो झटपट 'किन्तु' और 'परन्तु लगने लगता है। विवाह-शादियों में अत्यधिक खर्च होता है और इससे हर परिवार को वेदना है, किन्तु जब चर्चा चलती है, तो कहा जाता है-बात तो ठीक है किन्तु क्या करें ? सत्य या परम्परा : साधु-समाज में भी कई गलत रूढ़ियाँ और परम्पराएँ चल रही हैं । जब उनके सम्बन्ध में बात कही जाती है, तो कहते हैं-बात तो ठीक है साहब ! किन्तु क्या करें ? राष्ट्रीय चेतना में भी गड़बड़ है। राष्ट्र के नेताओं और कर्ण-धारों के साथ विचार करते हैं, तो वे भी यही कहते हैं-ठीक है, परन्तु क्या करें ? . बस, यहीं पर' सारी गड़बड़ियों की जड़ है। यह मानसिक असत्य और दुबलता का परिणाम है। वह 'पर' जब पक्षी के जीवन में लग जाते हैं, तो वह ऊपर उड़ने लगता है किन्तु जब हमारे जीवन में लग जाता है , तो हम नीचे गिरने लगते हैं। यह 'पर' हमारे जीवन को ऊँचा नहीं उठने देता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy