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________________ सत्य दर्शन/७९ सत्यवती सन्नारी के रूप में हम जिस सत्य की परम गाथा दोहराते आ रहे हैं, वह सत्य कितना बड़ा है ? उस परम सत्य की शक्ति कितनी विराट है ? वह सत्य अगर वचनों का ही सत्य होता, जो आपके समाने है, वही सत्य का रूप अगर उनके जीवन में होता, तो उसका यह विस्मय-जनक रूप हमें दिखाई न देता। परन्तु वह सत्य तो जीवन का सत्य था। जीवन का सत्य संसार की प्रकृति में हर जगह तबदीलियाँ कर सकता है। बाहर-भीतर दार्शनिक क्षेत्र में एक प्रश्न बड़ा ही विकट है। पूर्वाचार्यों ने उस पर चिन्तन किया है और आज भी चिन्तन किया जा रहा है। प्रश्न यह है कि-अन्तर की चेतना बाहर के वातावरण से प्रभावित होती है या बाहर का वातावरण आन्तरिक चेतना से प्रभावित होता है ? एक तरफ तो हम अपनी सीमाओं को लेकर खड़े हैं और दूसरी तरफ विराट जगत् है। क्या चेतना में इतनी सामर्थ्य है कि वह इस विशाल विश्व को प्रभावित कर सके ? अथवा चेतना स्वयं ही प्रभावित होती रहती है ? आप कहीं बाहर जाते हैं और आपको चोर-डाकू सामने मिल जाता है, तो आप अन्दर में प्रभावित होते हैं, भयभीत होते हैं और रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं । तो ऐसा लगने लगता है कि आप और हम बाह्य जगत् से अन्दर में निरन्तर प्रभावित होते रहते कोई सज्जन मिलता है, तो हम प्रभावित होते हैं, प्रसन्न होते हैं। कोई तिरस्कार करता है, तो अन्तर में आग सुलगने लगती है और भय की बातें सुनकर भयभीत हो जाते हैं। इन सब बातों से यही प्रतीत होता है कि बाहर के द्वारा हमारे अन्दर का जीवन प्रभावित हो रहा है। किन्तु प्रभावित होने की यह प्रक्रिया कब तक चालू रहती है ? आखिरकार प्रभावित होने की कुछ सीमाएँ हैं । आप जानते हैं कि जब आत्मा वीतराग दशा प्राप्त कर लेने के पश्चात् कैवल्य अवस्था में पहुँच जाती है, जब भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ जैसे महापुरुषों ने साधारण जीवन व्यतीत करने के पश्चात् केवल ज्ञान का महान् प्रकाश प्राप्त कर लिया और अनन्त आत्मिक शक्ति उनमें आविर्भूत हो गई तो क्या वे बाहर से प्रभावित हुए ? ऐसे पहुंचे हुए महापुरुष, कितना ही सत्कार और कितना ही तिरस्कार पाकर रंचमात्र भी भीतर में प्रभावित नहीं होते। यही नहीं, उनकी परम आध्यात्मिक शक्ति बाहर को, बाह्य जगत् को प्रभावित करने लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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