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७८/ सत्य दर्शन हों। इतिहास पढ़ने वालों ने पढ़ा होगा और सुनने वालों ने सुना होगा कि भारत की एक सन्नारी ने सत्य की महान् उपासना की थी। उसके सामने एक तरफ दुःखों का पहाड़ था, काँटों की राह थी और दूसरी तरफ प्रलोभन थे और फूलों का मार्ग था। पर वह थी कि न दुःखों से भयभीत हुई और न सुख में फूली ही। उसने छह-छह महीने काँटों पर गुजारने के बाद भी अपने जीवन को सत्य के मार्ग पर ही कायम रखा। प्रचण्ड-शक्ति रावण के पंजे में पड़कर भी सती सीता अखण्ड सत्य की प्रतीक ही बनी रही। समुद्र में गोता लगाकर भी वह सूखी आई और एक पल्ला भी उसका नहीं भीगा।
सीता धधकते हुए अग्नि-कुण्ड के सामने खड़ी है । लपलपाती हुई लपटें आसमान से बातें कर रही हैं। किन्तु सीता निर्भय भाव से उस कुण्ड में छलाँग लगाने को तैयार है। उसने छलाँग लगाई और हजारों आदिमयों के मुहँ से 'आह' निकल पड़ी ! परन्तु सब के देखते-देखते वह जाज्वल्यमान अग्नि पानी के रूप में बदल गई। अग्नि का कुण्ड लहराता हुआ पानी का कुण्ड बन गया। जब भारत के पुराने इतिहास की यह कहानियाँ हम पढ़ते हैं, तो सोचते हैं-यह कहानियाँ हमें कौन-सा रास्ता दिखलाती हैं ?
राम सामने खड़े थे और वे स्वयं सीता से अग्नि के कुण्ड में कूदने को कह रहे थे। जनता भी लाखों की संख्या में खड़ी थी। बहुतों के मन में वेदना थी और वे आपस में कहते थे-ऐसा नहीं होना चाहिए, यह वेदना कम नहीं दी जा रही है। उस भीषण स्थिति में सारा संसार का बल एक किनारे खड़ा हो गया । धन-वैभव और नाते-रिश्तेदारों की शक्तियाँ भी आग बन कर खड़ी हो गईं, कोई काम नहीं आ रहा है। अगर कोई काम आ रहा है, तो एकमात्र जीवन का परम सत्य ही काम आ रहा है।
सीता ने अतिशय गंभीर वाणी में कहा-"दिन गुजरा या रात गुजरी, मैं अयोध्या के महलों में या रावण के यहाँ रही, मेरा शरीर कहीं भी रहा, अगर मैंने धर्म की सीमा में रह कर जीवन व्यतीत किया है, अगर मैं अपने सत्य पर अविचल रही हूँ, तो यह जलती हुई आग पानी बन जाए।" इतना कहकर आग में वह कूद पड़ी और सत्य के प्रभाव से अग्नि पानी के रूप में परिणत हो गई।
तो इस प्रकार सीता के रूप में, द्रौपदी के रूप में, अंजना के रूप में या किसी भी
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